Diabetes education in Indian languagaes भारतीय भाषा में मधुमेह शिक्षाభారతీయ భాషలో మదుమెహ విద్య
मधुमेह एवं नेत्र |
डायबिटिज में आंख की बीमारियां अन्य लोगों की अपेक्षा दो गुना अधिक होती है और डायबिटिज रेटिनोपैथी के अलावा मोतियाबिन्द और समलबाई के होने की सम्भावना सामान्य से अधिक होती है। डायबिटिज आज भारतवर्ष में पूर्ण अन्धता के छः मुख्य कारणों में से एक बन गई है। डायबिटिज के मरीजों में पूर्ण अन्धता की संभावना सामान्य लोगों से 25 गुना अधिक होती है। डायबिटिज दो तरह की होती है। टाइप-1 और टाईप-2। किसी भी तरह के डायबिटिज में होने वाली प्रमुख बीमारी डायबिटिज रेटिनोपैथी होती है और यह बीमारी डायबिटिज होने के 25 वर्ष के अन्दर 70 से 80% रोगियों को हो जाती है और चूँकि इसका होना इस बात पर निर्भर करता है कि डायबिटिज कितने लम्बे समय से है और इस बात पर कि डायबिटिज कन्ट्रोल है भी कि नहीं पर यह सत्य है कि डायबिटिज के कन्ट्रोल में रहने पर रेटिनोपैथी धीरे-धीरे पनपती है और इसकी भयावहता भी कम हो जाती है अन्यथा बहुत ही तेजी से बढ़कर रेटिनोपैथी अन्तिम चरण में पहुँच जाती है और रोगी पूर्ण अन्धता का शिकार हो जाता है। टाईप-1 डायबिटिज के मरीजों में रोग जल्दी एवं तेजी से पनपता है अतः उन्हें अत्यधिक सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है। अगर डायबिटिज रेटिनापैथी के साथ-साथ मरीज को उच्च-रक्त चाप, एनिमिया एवं गूर्दे की परेशानी होती है तो बीमारी के लक्षण तेजी से बढ़ते है और भयावह हो सकते हैं अतः इन अन्य रोगों का इलाज अत्यन्त आवश्यक है। डायबिटिज रेटिनापैथी में आँख के पर्दे अर्थात् रेटिना को रक्त पहुँचाने वाली सूक्ष्म नलिकाओं की दीवारों में सूजन आ जाता है, जिससे वह सकरी हो जाती हैं तथा रक्त कण आपस में चिपककर इन सकरी नलिकाओं को बन्द कर देती हैं, जिससे अवरूद्ध नलिकायें फूल जाती है और फूल-फूल कर फट जाती हैं और रेटिना पर खून के धब्बे बिखर जाते हैं। तदोपरान्त रेटिना को यथोचित रक्त प्रवाह न मिलने के कारण आवश्यक पदार्थों एवं O2 की कमी आ जाती है, जिसकी वजह से सूजन आ जाती है।
रेटिना के प्रमुख क्षेत्र जहां से दिखाई देती है, जिसे मैकुला कहते हैं और डायबेटिक रेटिनोपैथी में नजर के गिर जाने के तीन मुख्य कारणों में से एक है। मैकुला पर सूजन आ जाना बहुत लम्बे समय तक रेटिना के खाद्य पदार्थों और आक्सीजन की कमी के कारण इसकी आपूर्ति हेतु नई परन्तु अत्यन्त कमजोर खून की नलियां कई स्थानों पर पनपना शुरू कर देती हैं, जिसे वैसकुलराइजेशन कहते हैं। इन नलियों के थोड़े से जोर पड़ जाने से आंख के गोलक के अन्दर भीषण रक्तस्राव होने लगता है इसे विट्रीयस-हेमरेज कहते हैं और यह डायबेटिक रेटिनापैथी में नेत्र ज्योति के कम होने का दूसरा प्रमुख कारण है। अन्ततः आंख के गोलक में भरा रक्त सूखने लगता है और झिल्लियों में परिवर्तित होने लगता है और इन झिल्लियों के द्वारा रेटिना पर पड़ने वाले खिंचाव से पर्दा उखड़ जाता है, जिसे ट्रेक्सनल रेटिनल डिटैचमेन्ट कहते हैं यह नजर गिरने का तीसरा प्रमुख कारण होता है। चूँकि डायबेटिक रेटिनापैथी में नेत्र ज्योति अधिकतर बीमारी के अन्तिम एवं काफी गम्भीर होने पर गिरती है और तब तक इलाज के लिए काफी देर हो चुकी होती है। अतः प्रत्येक मधुमेह रोगी को रेटिना की जाँच मधुमेह का पता लगते ही कराना चाहिए और तदोपरान्त किसी लक्षण के न रहने पर भी वर्ष में एक से दो बार आंख की पुतली को फैलाकर रेटिना विशेषज्ञ द्वारा जांच कराते रहना चाहिए। डायबेटिक रेटिनापैथी के इलाज में समय रहते बीमारी की पहचान एवं रोकथाम का प्रमुख स्थान है।
इसके उपचार हेतु रेटिना की फ्लोरसिन एन्जियोग्राफी (F.F.A.) की जाती है, जो कि आउटडोर जांच है और इसमें एक दवा का इन्जेक्शन लगाकर मशीन द्वारा पर्दे की फोटोग्राफी की जाती है। इस जांच के द्वारा बीमारी की स्टेजिंग की जाती है तथा कहां कितनी सूजन है अथवा कितना लेजर उपचार देना है इसका आंकलन किया जाता है। साथ ही लेजर द्वारा उपचार के बाद की स्थिति का आंकलन भी फ्लोरसिन एन्जियोग्राफी के द्वारा ही किया जाता है।
डायबेटिक रेटिनोपैथी का उपचार प्रमुख रूप से तीन तरह से किया जाता है।
लेजर ट्रीटमेन्ट कराने के पश्चात् पर्दे पर सूजन कम हो जाती है और खून का रिसना बन्द हो जाता है तथा रोशनी में सुधार हो जाता है। कई लोगों में रोशनी हल्की सी कम हो सकती है। परन्तु लेजर ट्रीटमेन्ट के पश्चात् दृष्टि कम से कम उतनी ही बची रहती है और रोगी के दृष्टिहीन होने का खतरा नहीं रह जाता, क्योंकि लेजर द्वारा उपचार के पश्चात् रोग के बढ़ने की प्रक्रिया थम जाती है और सूजन वगैरह खत्म हो जाती है। यह उपचार रेटिना विशेषज्ञ द्वारा 10-15 मिनट में किया जाता है और मरीज तुरन्त घर जा सकता है।
बीमारी के अन्तिम चरण में जब गोलक में रक्त-स्राव व ट्रेक्सनल डिटैचमेन्ट हो जाता है उसके उपचार हेतु एक बड़ी सर्जरी की जाती है जिसे विट्रेक्टामी कहते हैं। इसमें यह जरूरी नहीं है कि पूरी कामयाबी नजर वापस आ जाए (लेकिन इसमें पूरा प्रयास रोशनी बचाने का किया जाता है, जो कि रोशनी को बचाने का आखिरी प्रयास होता है।
मोतियाबिन्द आपरेशन के बाद डायबेटिक रेटिनोपैथी की गम्भीरता अर्थात् पर्दे पर सूजन आदि तेजी से बढ़ने लगती है अतः किसी भी आपरेशन से पहले डायबेटिक रेटिनोपैथी का उपचार अगर संभव हो तो करवा लेना चाहिए अन्यथा आपरेशन के तुरन्त बाद उपचार की आवश्यकता होती है।
डा0 दुर्गेश श्रीवास्तवएम.एस. रामजानकी नेत्रालय, पत्थर कोठी 33, कसया रोड, बेतियाहाता-गोरखपुर मधुमेह व प्रौढ़ावस्था में नेत्र सम्बन्धी जानकारियाँ
40 वर्ष की अवस्था के बाद आंखों में कुछ प्राकृतिक बदलाव आता है तथा कुछ अन्य शारीरिक बीमारियों का प्रभाव बढ़ता है। 40 से 40 वर्ष के बीच नजदीक की रोशनी कम होने लगती है तथा पढ़ने के लिए चश्मा की आवश्यकता पड़ती है। प्रतिवर्ष थोड़ा-थोड़ा बढ़ता रहता है। इसे प्रेस वायोपिया कहते हैं। यह एक प्राकृतिक बदलाव है। इससे परेशान नहीं होना चाहिए। किसी नेत्र विशेषज्ञ से परामर्श करें। वह चश्मे का उचित नम्बर देने के साथ-साथ आंखों की पूरी जांच करेंगे, जिससे प्रारम्भ में कोई तकलीफ नहीं होती है, किन्तु बाद में रोशनी जाने का खतरा पैदा हो सकता है। डायबिटिज बहुत से लोगों में पाया जा रहा है। यह शरीर के सभी हिस्सों को प्रभावित करता है। आंखों में इसके कारण 2 महत्वपूर्ण खतरा पैदा होते हैं। एक तो डायबिटिक रेटिनापैथी तथा दूसरा समलबाई या ग्लूकोमा। समलबाई या काला मोतिया या ग्लूकोमा एक बहुत ही खतरनाक बीमारी है। एडवांस स्टेज आने से पहले तक न दर्द होता है और न ही धुंधलापन आता है अधिकतर मरीजों को बहुत अधिक खराबी के बाद ही दर्द या धुंधलापन आता है और तब दवा व ऑपरेशन के बावजूद ज्यादातर लोग अन्धे हो जाते हैं। इसलिए समलबाई को शुरूआत में जानने के लिए डाक्टर व मरीज दोनों को ही विशेष रूप से सतर्क रहना चाहिए। यदि किसी भी व्यक्ति को लम्बे समय से डायबिटिज, हाइपरटेंशन व आंख की किसी भी बीमारी का इलाज चला हो या आंख में कभी काई चोट, माता-पिता या भाई-बहन में किसी को समलबाई की शिकायत तथा अधिक पावर का चश्मा लगा हो प्लस या माइनस या 40 वर्ष से अधिक उम्र हो तो इन्हें आंखों की जांच अवश्य करानी चाहिए। समलबाई की जांच में आवश्यक हैः-
इन्ट्राआकुलर टेन्शन की जाँच
इन सातों जांचों में सबसे आधुनिक व उपयोगी जांच है जी.डी.एक्स. इसकी विशेषता यह है कि प्रारम्भ में ही समलबाई को जान लेता व समय-समय पर इलाज से हो रहे असर के बारे में पता लगाना।
डायबिटिज अन्धेपन का एक मुख्य कारण है, जिससे होने वाली बीमारी को डायबिटीक रेटिनोपैथी कहते हैं, जिससे शुरू में आंख में हो रहे नुकसान को समझ पाना मरीज के लिए मुश्किल होता है और मरीज को समझ में आने तक 60-70 प्रतिशत तक रोशनी समाप्त हो जाती है। अतः बेहतर यह है कि समय रहते ही इसका इलाज कर इससे बचा जा सके। इसके जांच के लिए आवश्यक है:
आंख के पर्दे का फलोरोसिन एन्जियोग्राफी द्वारा जांच व बचाव के लिए लेजर द्वारा सेंकाई करना। लेजर के बाद से रोशनी बढ़ने की संभावना कम होती है परन्तु और अधिक नुकसान से बचने के लिए इसे करवाना आवश्यक होता है।
मोतियाबिन्द प्रौढ़ावस्था से कम दिखाई देने के कारणों में से सबसे बड़ा कारण है, जिससे की मरीज को कम या धुंधला दिखाई देने लगता है। बहुत देर करने से मोतियाबिन्द कड़ा हो जाता है और आपरेशन करने में परेशानी होती है। साथ ही कभी-कभी देर कर देने के कारण रोशनी समाप्त होने या समलबाई का दर्द होने का खतरा बढ़ जाता है। क्योंकि मोतियाबिन्द का आपरेशन अनिवार्य है इसलिए अधिक समय तक बढ़ने पकने का इन्तजार न करके सही समय पर ऑपरेशन करवाना चाहिए। मोतियाबिन्द आपरेशन की आधुनिक व सुरक्षित तकनीकि है ‘फेको सर्जरी’। ध्यान देने योग्य बातें:
आँखों की देखभालचश्मा हटाने के लिए लेसिक लेजर
लेसिक (LASIK) (Laser Assisted In-Situ Keratomileusis) कार्निया की गोलाई (Radius of Curvature) को कम या ज्यादा कर आँख का पॉवर ठीक करता है जिससे प्रतिबिम्ब आँख के पर्दे पर बनने लगता है और साफ दिखाई देने लगता है। लेसिक बहुत ही आसान व आरामदायक प्रक्रिया है। पहले आँख की जांच की जाती है और निश्चित किया जाता है कि लेसिक के लिए उपयुक्त है कि नहीं। इसके बाद आँख में सफाई व सुन्न करने वाला आई ड्राप डाला जाता है। माइक्रोकेरैटोम से कार्निया की ऊपरी परत (लगभग एक तिहाई) किनारे हटाकर लेसिक लेजर से जितने पावर की कमी होती है उतना पावर बढ़ाया जाता है अन्त में कार्निया के ऊपरी परत को पुनः उसी जगह लगा दिया जाता है इसमें कोई टांका या लेंस नहीं लगाना पड़ता है।
एक डायोप्टर पॉवर ठीक करने में लगभग आठ सेकेण्ड लगता है। अर्थात् 5 डायोप्टर के लिए 40 सेकेण्ड। लेसिक के लिए सभी उपयुक्त पात्र नहीं होते, पूरी तरह से नेत्र चिकित्सक जांच के उपरान्त ही बता पायेंगे, किन्तु इसकी सामान्य शर्ते हैं:-
लेसिक कराने का निर्णय पूरी जानकारी करके वास्तवितकता के धरातल पर करना चाहिए। मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए कि आंख का पॉवर लगभग सामान्य हो जाये जिससे कि चश्मा व अन्य साधनों पर निर्भरता कम हेा जाये। लेसिक कराने के बाद अधिकतर (95% से ज्यादा) लोगों को किसी चश्में की आवश्यकता नहीं पड़ती है, किन्तु कुछ लोगों को (लगभग 5%) जिन्हें बहुत ही एक्यूरेट विजन की आवश्यकता होती है हल्के पॉवर का चश्मा समय-समय पर लगाने की आवश्यकता पड़ सकती है या पुनः लेसिक करा सकते हैं।
जब नेत्र में आने वाल प्रकाश की रिणें रेटिना पर फोकस नहीं होती है तो धुंधला दिखाई देता है, इसे दृष्टि दोष कहते हैं। यदि प्रतिबिम्ब रेटिना के आगे बन रहा है तो इसे मायोपिया या निकट दृष्टि दोष कहते हैं। इसमें माइनस लेंस से साफ दिखाई देता है और यदि प्रतिबिम्ब रेटिना के पीछे बन रहा हो तो इसे हाइपरमेट्रोपिया या दूर दृष्टि दोष कहते हैं। यदि प्रतिबिम्ब का कुछ भाग आगे और कुछ भाग पीछे बन रहा हो तो इसे ऐस्टिगमेटिज्म कहते हैं, हसमें सिलेंडर लेंस से साफ दिखाई देता है। लगभग 40 वर्ष की अवस्था में डेढ़ फिट की दूरी पर साफ नहीं दिखता है और किताब यदि कुछ दूर करके देखें तो साफ हो जाता है। इसे प्रेसबायोपिया कहते हैं। प्रेसबायोपिया लेसिक से ठीक नहीं होता है।
इन सभी अवस्थाओं में पारम्परिक रूप से चश्मा लगाने की सुविधा है लेकिन चश्मा असुविधाजनक व अप्रिय महसूस होता है। विशेषकर शादी, रोजगार या खेलकूद में इसलिए आजकल कांटेक्ट लेंस का प्रयोग बढ़ गया है। कांटेक्ट लेंस सस्ता तो है लेकिन रोज निकालना, लगाना, सफाई व समय-समय पर बदलने के कारण कम ही लोग इसे सुविधाजनक समझते हैं। फिर प्रकृति की खूबसूरती को देखने के लिए चश्मा या कांटेक्ट लेंस पर निर्भरता क्यों यदि लेसिक करा सकते हैं। लेकिन आपरेशन डेट से-
डायबेटिक रेटिनापैथी व रेटिना की अन्य बीमारियों का इलाज
रेटिना या पर्दा नेत्र गोलक के पिछले हिस्से से पतली झिल्ली जैसी संरचना होती है। इसमें कुछ दोष ऐसे भी होते हैं जिनमें कोई तकलीफ नहीं होती है किन्तु बीमारी बढ़ती रहती है। इसलिए आवश्यक है कि मायोपिया डायबीटिज व ब्लड प्रेशर वाले व्यक्ति को कोई तकलीफ हो या न हो नियमित रूप से नेत्र जांच कराते रहें। पर्दे की पूर्ण जांच के लिए आवश्यक है कि पुतली फैलाने की दवा डाली जाए इस दवा के कारण 3 घण्टे या ज्यादा समय के लिए नजदीक में धुंधलापन आता है तथा प्रकाश में चकाचैंध दिखता है फिर स्वतः ही ठीक हो जाता है। पर्दे में छेद होने, फटने (डिटैचमेण्ट) या खून की नली फटने में आवश्यक नहीं है कि रोशनी में कमी हेा जब दोष पर्दे के मध्य में आस-पास होता है तभी मरीज को समझ में आता है। पर्दे के दोष को ज्ञात करने के लिए कभी-कभी एफ.एफ.ए. (फण्डस फ्लोरेसिन एन्जियोग्राफी) करना पड़ता है। इसमें नस में डाई इंजैक्ट करने के बाद बहुत से फोटोग्राफ लिये जाते हैं। इसके बाद आवश्यकता पड़ने पर लेजर ट्रीटमेण्ट दिया जाता है। ज्यादातर मरीजों में पर्दे पर लेजर ट्रीटमेण्ट से दोष को रोकने में सहयोग मिलता है। पर्दे जब अपनी जगह या जड़ से उखड़ जाता है तो उसका न्यूट्रिशन बाधित होने के कारण सूखने लगता है। ऐसी स्थिति में उसे पुनः अपने स्थान से जल्दी से लगा देने से ठीक रोशनी आ सकती है। देरे होने पर सूखने व सिकुड़ने के कारण ऑपरेशन के बाद ठीक से अटैच होने के बावजूद अच्छा परिणाम नहीं आता।
समलबाई का इलाज
आँख के आन्तरिक दबाव को (टेंशन) बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण नस सूखने लगता है तथा दृष्टि क्षेत्रफल (चौड़ाई में विस्तार) कम होने लगता है। सामने, दूरी और नजदीक में अच्छा दिखाई देता है, किन्तु बगल में चौड़ाई कम होने लगती है जिसका अनुमान स्वयं कर पाना बहुत मुश्किल है। लगभग 95 प्रतिशत मरीजों को कोई दर्द नहीं होता है इसी कारण ज्यादातर व्यक्तियों में समलबाई इतनी बढ़ जाती है कि लगभग 90 प्रतिशत रोशनी समाप्त होने के बाद ही मरीज को स्वतः अनुभव होता है कि कुछ परेशानी है। समलबाई में जो रोशनी चली जाती है वह दवा या आपरेशन से वापस नहीं आती। इसलिए यह आवश्यक है कि 40 वर्ष के अवस्था के बाद प्रति वर्ष नियमित रूप से आँखों की जांच कराते रहें और आवश्यकतानुसार चिकित्सक से परामर्श से दृष्टि क्षेत्रफल (फील्ड टेस्ट) की जांच कराते रहें। यदि माता-पिता या भाई-बहन को समलबाई हो तो और भी सतर्क रहने की आवश्यकता है। चिकित्सक के निर्देशानुसार बिना विलम्ब किये दवा या ऑपरेशन की सहायता से बची हुई रोशनी के लिए जीवन भरी प्रयासरत रहना पड़ेगा, समलबाई में रोशनी बढ़ने की उम्मीद न रखें।
कांटेक्ट लेंस फ़िटिंग
अधिकांश व्यक्तियों में कांटेक्ट लेंस चश्मा के तुलना में अच्छी रोशनी देता है। इसके साथ हाथ साफ करके लगाना या उतारना चाहिए, बताये गये फ्ल्यूड में ही लेंस रखना चाहिए। चश्मा पहन कर नहीं सोना चाहिए। जब भी कभी आँख में लाली, पानी या दर्द हो तो कांटेक्ट लेंस उतार देना चाहिए और चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए।
मोतियाबिन्द के लिए फेको सर्जरी
प्राकृतिक लेंस जब धुंधला हो जाता है तो मोतियाबिन्द कहते हैं। मोतियाबिन्द आपरेशन की सबसे अच्छी व नई तकनीक है: फेको सर्जरी और मल्टीफोकल फोल्डेबल इम्प्लाण्टेशन। जब मोतियाबिन्द के कारण अपने कामों में परेशानी शुरू हो जाये तो शुरू में ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए। बहुत देर करने से मोतियाबिन्द कड़ा हो जाता है, और ऑपरेशन करने में परेशानी होती है। साथ ही कभी-कभी देर के कारण रोशनी समाप्त होने या समलबाई का दर्द होने का खतरा बढ़ जाता है। क्योंकि मोतियाबिन्द का निकालना अनिवार्य है, और पहले निकलना मरीज और डॉक्टर दोनों के लिए आरामदायक है इसलिए चश्में के बावजूद कम रोशनी की परेशानी झेलते हुए अधिक समय तक बढ़ने, पकने या आँख खराब होने का मौका नहीं देना चाहिए। किसी मौसम में ऑपरेशन कराया जा सकता है।
नयी विधि में मरीज के लिए बहुत आराम हो गया है। इसमें बेहोशी या सुन्न कराने की सूई (इन्जेक्शन) की जरूरत नहीं पड़ती है। ऑपरेशन के समय मरीज के लिए बात करने या इधर- उधर आँख के घुमाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसमें दस से बीस मिनट लगता है। ऑपरेशन के बाद कोई टांका या बैन्डेज (पट्टी नहीं लगता है और आपरेटेड आँख से देखते हुए घर जा सकते हैं। ऑफिस वर्क अगले दिन से किन्तु फिल्ड या लेबर वर्क दो सप्ताह बाद कर सकते हैं।
फेको सर्जरी से मशीन की एक पतली निडिल आँख में जाती है और मोतियाबिन्द को तोड़कर व घोलकर साफ कर देती है। इसमें निडिल जोने का छोटा सा सुराख करना पड़ता है इसलिए इसमें आराम व सुरक्षा बढ़ जाती है। टाँका नहीं लगाना पड़ता है। इसलिए टांका चुभने व निकालने की समस्या नहीं रहती है।
प्राकृतिक धुंधले लेन्स को निकालने के बाद कृत्रिम लेन्स (उपर्युक्त पॉवर अल्ट्रा साउण्ड बायोमेट्री की सहायता से ज्ञात करते हैं) लगाना आवश्यक है। कृत्रिम लेन्स कई प्रकार के होते हैं। पहला नान फेको (हार्ड लेन्स) दूसरा फेको (हार्ड लेन्स) तीसरा फेको साफ्ट (फोल्डेबल) लेन्स अच्छा रहता है, क्योंकि इसे आंख में डालने के लिए बड़े चीरे की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि लेन्स मुड़कर (फोल्ड होकर) अन्दर जाता है, और वहां खुलकर (अनफोल्ड होकर) नार्मल साइज में आ जाता है, इन सभी लेन्सों में एक ही दूरी का पॉवर होता है। इस कमी को पूरा करने के लिए और अन्य दूरियाँ पर बिल्कुल स्पष्ट देखने के लिए हल्के पॉवर का चश्मा लगाना होता है।
मल्टी फोकल फोल्डेबल लेन्स में 5 अलग-अलग दूरियों के लिए 5 पॉवर होते हैं। दो पास के लिए, दो दूर के लिए तथा एक बीच के लिए। इस तरह सभी दूरियां स्पष्ट नहीं होती हैं। किन्तु एक पॉवर वाले लेन्स की तुलना में पांच पावर वाले लेंस से काफी काम आसानी से हो जाता है। कुछ लोगों को हल्के पॉवर का चश्मा भी लगाना पड़ता है तो भी सिंगल पॉवर लेन्स की तुलना में यह काफी आरामदायक होता है। मल्टी फोकल लेंस में शुरू के तीन-चार माह तक रात में स्वयं ड्राइविंग करना मना होता है।
एकोमोडेटिव लेंस में पॉवर एक ही होता है किन्तु उसके लूप में एकोमोडेशन का गुण होता है जिसके कारण 90 प्रतिशत व्यक्तियों में लगभग 90% काम बिना चश्में के हो जाता है।
ज्यादातर लोगों में पॉवर एक ही होता है, किन्तु कभी-कभी उम्र के कारण या अन्य किसी बीमारी के कारण नस या पर्दा कमजोर हो जाता है तब अच्छे आपरेशन के बावजूद अच्छी रोशनी नहीं आती है। कभी-कभी सभी तैयारियों और प्रयासों के बावजूद लेंस लगाना सम्भव नहीं हो पाता है। कभी-कभी आपरेशन के बाद इन्फेक्शन होने, समलबाई होने, पुतली खराब होने के कारण पुनः अस्पताल में भर्ती होने या ऑपरेशन कराने की आवश्यकता पड़ सकती है।
आधुनिक तकनीक के कारण मोतियाबिन्द ऑपरेशन बहुत आसान व सुरक्षित हो गया है किन्तु फिर भी किसी सर्जरी में दवा के रिएक्शन या अन्य अनहोनी के कारण आँख या जान जाने के खतरे को शत-प्रतिशत टाला नहीं जा सकता। मोतियाबिन्द ऑपरेशन के बाद कभी-कभी एक धुंधली झिल्ली आ जाती है, जिसे लेसर से बिना बेहोशी के साफ करा सकते हैं। लेन्स आँख के अन्दर होता है। इसलिए आँख में पानी का छींटा मारने, मलने, धूल या धुंआ लगने से लेन्स खराब नहीं होता है। लेन्स में कोई सफाई या बदलने की आवश्यकता नहीं होती है। लेन्स पूरे जीवन भर के लिये होता है। अतः यदि डाक्टर का परामर्श हो तो मोतियाबिन्द का इलाज जल्दी (जैसे ही अपने काम में चश्में के बावजूद उस आंख से रोशनी कम महसूस हों) फेको विधि से मल्टीफोकल या सिंगल फोकल फोल्डेबल बिना पके बिना मौसम का इन्तजार किये, बिना इन्जेक्शन, बिना बेहोशी, बिना टांका व बिना बैंडेज के कराना चाहिए।
नेत्र सम्बन्धी जानकारियाँ
डा. अनिल कुमार श्रीवास्तव एम.एस. (नेत्र) राज आई हास्पिटल, गोरखपुर |
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