Thursday, November 12, 2009

చెక్ థిస్ मुफ्त ऑनलाइन शब्दकोश

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मुफ्त ऑनलाइन शब्दकोश [meniere's disease]
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Related
disease
alzheimers disease
pessary
parkinsons disease
vd
radiotherapy
lessen
smallpox
preventive
deficiency
antibody
anthrax
undetected
soporific
aromatherapy
notifiable
contagious
mumps
measles
symptom
degenerative
dengue
cholera
plague
streptococcus
listless
impetigo
incurable
ineradicable
jaundice
unmentionable
splentic
coronary
meniere's disease
Meniere का रोग n: भीतरी कान एपिसोड के द्वारा विशेषता का एक रोग चक्कर आना और tinnitus और प्रगतिशील सुनवाई हानि (आमतौर पर) एकतरफा [hi/278423/wrdnet/dictionary/m5r9-1dc42f56b]
disease
,di'zi:z [hi/30495/cmupro/dictionary/m5r9-964138645]
eye disease
नेत्र रोग n: आंखों का कोई भी रोग [hi/239639/wrdnet/dictionary/m5r9-835b8d597]
hereditary condition
वंशानुगत हालत n: एक रोग या विकार कि आनुवंशिक [syn: विरासत में मिला है (आनुवंशिक बीमारी), (आनुवंशिक विकार), (आनुवंशिक विषमता), (आनुवंशिक दोष), (जन्मजात बीमारी), (), बीमारी विरासत में मिली (विरासत में मिला विकार), (वंशानुगत रोग)] [hi/258122/wrdnet/dictionary/m5r9-2b865bba7]
vd
VD n: एक संचारी रोग संभोग या द्वारा प्रेषित जननांगी संपर्क [syn: (यौन रोग), (सामाजिक बीमारी), (कामदेव की खुजली), (कामदेव का रोग), (शुक्र है अभिशाप), (यौन बीमारी) पारेषित] [hi/336491/wrdnet/dictionary/m5r9-cddc5fe1d]
inherited disorder
विकार विरासत में मिला n: एक रोग या विकार कि आनुवंशिक [syn: विरासत में मिला है (आनुवंशिक बीमारी), (आनुवंशिक विकार), (आनुवंशिक विषमता), (आनुवंशिक दोष), (जन्मजात बीमारी), () बीमारी विरासत में मिला, (वंशानुगत बीमारी), (वंशानुगत हालत)] [hi/263983/wrdnet/dictionary/m5r9-6ea0f6208]
disease
disease 1. बीमारी "He is suffering from some incurable disease." [hi/131746/eng-hi/dictionary/m5r9-f5a76711c]
alzheimers disease
Alzheimer's disease 1. मानसिक बीमारी{जिसमें व्यक्ति की यादाश्त एवं बोलने की शक्ति चली जाती है} "Alzheimer's disease is generally found in aged men and women." [hi/127756/eng-hi/dictionary/m5r9-a51da35b1]
pessary
pessary 1. पेसरी "Pessary is injected into woman's vagina to cure a disease."2. पिन्धा "Sometimes pessary is used to cure a disease in women." [hi/141281/eng-hi/dictionary/m5r9-c2b894be8]
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Tuesday, September 15, 2009

भारतीयों को डायबटीज से अंधेपन का खतरा

भारतीयों को डायबटीज से अंधेपन का खतरा

बैंकॉक: भारत के लोगों पर मधुमेह यानी डायबिटीज से पैदा होने वाली अंधता का खतरा मंडरा रहा है। इसके प्रति जागरूकता की कमी के चलते यह खतरा और

बढ़ गया है। यहां लायंस क्लब इंटरनैशनल फाउंडेशन (एलसीआईएफ) के 3 दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में यह बात कही गई।


 

एलसीआईएफ दक्षिण एशिया में एक बड़ा अभियान चला रहा है। इसके एक शीर्ष अधिकारी ने बताया कि भारत डायबिटीज की वैश्विक राजधानी है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति यदि समय पर इलाज ना कराए, तो वह अपनी आंखों की रोशनी खो सकता है। चिकित्सा की भाषा में इसे डायबिटिक रेटिनोपैथी कहा जाता है।


 

मुंबई के एक पूर्व न्यायाधीश और एलसीआईएफ के पूर्व प्रेजिडेंट डॉ. अशोक मेहता ने कहा कि मधुमेह के रोगियों में तंत्रिका तंत्र के भी क्षतिग्रस्त होने की संभावना होती है। इससे भी रोगी अंधा हो सकता है। उन्होंने कहा कि अगले 25 सालों में भारत में डायबिटिक रेटिनोपैथी के शिकार लोगों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा हो सकती है।


 

सम्मेलन में एक अनौपचारिक वार्ता के दौरान उन्होंने कहा कि एक बड़ी समस्या यह भी है कि डायबिटीज रोगी का बच्चा भी इस भयानक रोग की चपेट में आ सकता है। भारत में एक नियो-नेटल यूनिट की स्थापना करने की एलसीआईएफ की योजना के बारे में बताते हुए मेहता ने कहा कि रोगी के नवजात बच्चों को बचाना एलसीआईएफ की प्राथमिक चिंता है।


 

डायबिटीज के खतरे का सामना करने के लिए एलसीआईएफ ने दक्षिण भारत के 2 अस्पतालों शंकर नेत्रालय, चेन्नै और एल.वी. प्रसाद आई हॉस्पिटल, हैदराबाद के साथ हाथ मिलाया है। यहां रोगी की पूरी जांच कर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती है कि डायबिटिक रेटीनोपैथी के कारण रोगी की आंख न खराब हो।


 

एलसीआईएफ के कार्यकर्ता स्थानीय स्वास्थ्य केंद्रों पर नियमित रूप से काम करते हैं। वे 'मधुमेह जागरूकता अभियान' भी चलाते हैं जिसमें रोगियों को खान-पान से जुड़ी सलाह दी जाती है। संगठन केरल के 2 शहरों कोचीन और तिरुअनंतपुरम में बच्चों को अंधता से बचाने के लिए 'साइट फॉर किड्स' नाम की एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना सफलतापूर्वक चला रहा है। मेहता ने बताया कि इसमें नेत्र चिकित्सक और संगठन के कार्यकर्ता सरकारी और स्थानीय नागरिक संस्थाओं के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की नियमित जांच करते हैं। पायलट परियोजना के रूप में इस कार्यक्रम को देश के विभिन्न स्थानों जैसे हैदराबाद, दिल्ली, अहमदाबाद, बड़ोदरा, जयपुर और उदयपुर में शुरू किया गया है।


 

मेहता ने कहा कि एलसीआईएफ महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों को गोद लेना चाहता है, पर राज्य सरकार ने अभी तक इस प्रस्ताव का जवाब नहीं दिया है। काफी पहले 1993 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने सरकारी अस्पतालों को इस संगठन को गोद देने के विचार को खारिज कर दिया था। उन्होंने बताया कि आधुनिक उपकरण लगाकर और व्यवस्था में सुधार कर सरकारी अस्पतालों की क्षमता भी बढ़ाई जा सकती है।

28 Jun 2008, 0021 hrs IST, इकनॉमिक टाइम्स


 


 

अब बच्चों को होने लगी है बड़ों की बीमारी

    अब बच्चों को होने लगी है बड़ों की बीमारी

14 Nov 2008, 0502 hrs IST,नवभारत टाइम्स

नीतू सिंह

नई दिल्ली : पहले बड़ों की बीमारी मानी जाने वाली टाइप- 2 डायबीटीज अब बच्चों को भी होने लगी है। आमतौर पर टाइप- 2 डायबीटीज का खतरा 40 की उम्र के बाद माना जाता है, लेकिन अब 13 साल की उम्र से ही इसके लक्षण दिखने लगे हैं। 15 - 16 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते तो समस्या बड़ी बीमारी का रूप ले लेती है। चिंताजनक बात यह है कि इससे सिर्फ हेल्थ ही नहीं बल्कि लुक भी प्रभावित हो रहा है।


 

हार्ट केयर फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. के. के. अग्रवाल का कहना है कि फिलहाल बच्चों में डायबीटीज की समस्या कितनी बड़ी है? यह पता करने के लिए बड़े लेवल पर स्टडी नहीं हो पाई है, मगर वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन जैसी एजंसियों के अनुमान के मुताबिक फिलहाल शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 33 से 37 फीसदी स्कूली बच्चे मोटापे के शिकार हैं। इनमें से 10 फीसदी से ज्यादा डायबीटीज की चपेट में आ चुके हैं और लगभग इतने ही प्री-डायबिटिक स्टेज में हैं। डॉ. अग्रवाल के मुताबिक गलत जीवनशैली या पारिवारिक इतिहास के चलते होने वाला टाइप-2 डायबीटीज का असर लड़कों की तुलना में लड़कियों में डेढ़ फीसदी ज्यादा हो रहा है। इसके कारण लड़कियों के पीरियड्स में अनियमितता या मूछें उगने जैसी दिक्कतें हो रही हैं। इससे कई तरह की फिजिकल और साइकलॉजिकल समस्याएं भी पैदा हो रही हैं।


 

दिल्ली डायबिटिक रिसर्च सेंटर के अध्यक्ष डॉ. ए. के. झिंगन के मुताबिक, कम उम्र में टाइप-2 डायबीटीज होने के कारण मोटापा और इंसुलिन से संबंधित समस्याएं आम हैं। इसके कारण कम उम्र में ही हार्ट, किडनी और लीवर की बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. आर. एन. कालरा का कहना है कि इस तरह की दिक्कतों से बचाव के लिए बच्चों में शुरू से ही चीनी, चावल, मैदा जैसी चीजों से परहेज रखने और देर रात तक न जागने की आदत डालें। साथ ही उन्हें फिजिकल एक्सरसाइज के लिए भी भेजें।


 

डायबीटीज ने बढ़ाया आंखों के लिए भी खतरा


 

डायबीटीज आंखों की रोशनी के लिए भी सबसे बड़ा खतरा बन गया है। इसके कारण डाबिटिक रेटिनोपैथी नाम की बीमारी हो जाती है। ऐसा कहना है सेंटर फॉर साइट के डायरेक्टर डॉ. महिपाल सचदेव का। उन्होंने बताया कि डायबिटिक रेटिनोपैथी में रेटिना की ब्लड वेसेल्स कमजोर हो जाती हैं और इनसे खून निकलने लगता है। इससे नसें सूज सकती हैं।


 

इस तरह के बदलावों से रेटिना के अंदर ब्लड का संचार सामान्य नहीं रहता और आंखों को ऑक्सिजन और अन्य न्यूट्रिएंट नहीं मिल पाते। श्रेया आई सेंटर के अध्यक्ष डॉ. राकेश गुप्ता कहते हैं कि जैसे-जैसे यह बीमारी बढ़ती है वैसे-वैसे आंखों की रोशनी कम होती जाती है। ऐसे में शुरू से बचाव और समय पर आंखों की जांच बहुत जरूरी है।

    By 14 Nov 2008, 0502 hrs IST,नवभारत टाइम्स

नीतू सिंह

    
 


 


 


 


 

Friday, September 04, 2009

Defcon: Excuse me while I turn off your pacemaker



Defcon: Excuse me while I turn off your pacemaker


August 8, 2008 Dean Takahashi


The Defcon conference is the wild and woolly version of Black Hat for the unwashed masses of hackers. It always has its share of unusual hacks. The oddest so far is a collaborative academic effort where medical device security researchers have figured out how to turn off someone's pacemaker via remote control. They previously disclosed the paper at a conference in May. But the larger point of the vulnerability of all wirelessly-controlled medical devices remains a hot topic here at the show in Las Vegas.


Let's not have a collective heart attack, at least not yet. The people on the right side of the security fence are the ones who have figured this out so far. But this has very serious implications for the 2.6 million people who had pacemakers installed from 1990 to 2002 (the stats available from the researchers). It also presents product liability problems for the five companies that make pace makers.


Kevin Fu, an associate professor at the University of Massachusetts at Amherst and director of the Medical Device Security Center, said that his team and researchers at the University of Washington spent two years working on the challenge. Fu presented at Black Hat while Daniel Halperin, a graduate student at the University of Washington, presented today at Defcon.


Getting access to a pacemaker wasn't easy. Fu's team had to analyze and understand pacemakers for which there was no available documentation. Fu asked the medical device makers, explaining his cause fully, but didn't get any help.


William H. Maisel, a doctor at Beth Israel Deaconess Hospital and Harvard Medical School, granted Fu access for the project. Fu received an old pacemaker as the doctor installed a new one in a patient. The team had to use complicated procedures to take apart the pacemaker and reverse engineer its processes. Halperin said that the devices have a built-in test mechanism which turns out to be a bug that can be exploited by hackers. There is no cryptographic key used to secure the wireless communication between the control device and the pacemaker.


A computer acts as a control mechanism for programming the pacemaker so that it can be set to deal with a patient's particular defribrillation needs. Pacemakers administer small shocks to the heart to restore a regular heartbeat. The devices have the ability to induce a fatal shock to a heart.


Fu and Halperin said they used a cheap $1,000 system to mimic the control mechanism. It included a software radio, GNU radio software, and other electronics. They could use that to eavesdrop on private data such as the identity of the patient, the doctor, the diagnosis, and the pacemaker instructions. They figured out how to control the pacemaker with their device.


"You can induce the test mode, drain the device battery, and turn off therapies," Halperin said.


Translation: you can kill the patient. Fu said that he didn't try the attack on other brands of pacemakers because he just needed to prove the academic point. Halperin said, "This is something that academics can do now. We have to do something before the ability to mount attacks becomes easier."


The disclosure at Defcon wasn't particularly detailed, though the paper has all of the information on the hack. The crowd here is mostly male, young, with plenty of shaved heads, tattoos and long hair. The conference is a cash-only event where no pictures are allowed without consent. It draws thousands more people from a much wider net of security researchers and hackers than the more exclusive Black Hat.


Similar wireless control mechanisms are used for administering drugs to a patient or other medical devices. Clearly, the medical device companies have to start working on more secure devices. Other hackers have figured out how to induce epileptic seizures in people sensitive to light conditions. The longer I stay at the security conferences here in Las Vegas, the scarier it gets.

High Tech PILLS and capsules ,in the foot steps of the pill cam endoscopy



Philips iPill -- Like a Regular Pill, But With a Microprocessor


by
Engadget Staff (RSS feed) — Nov 12th 2008 at 8:10AM




It's been just about a year since we saw the patent for Philips' remote control "pill," and it looks like the thing is finally a reality. For those of you straining to remember that far back, the iPill (as it is now sadly known) is a miniature capsule that among its many charms contains a microprocessor, power supply, medicine reservoir and pump, and a radio so that it can remain in contact with external medical equipment. The pill's ability to accurately determine its position in the digestive tract enables it to deliver drugs precisely where they're needed, reducing dosage strength and side effects. According to Philips, the current design is a prototype, but it's suitable for serial manufacturing. Of course, this is not the first robot
pill we've seen -- and it certainly won't be the last. Just the same, we think we'll refrain from swallowing any nanotech for the time being.

Crawling robot pill

by Katie Fehrenbacher posted Oct 7th 2004 at 2:51AM


While the initial response to the idea of a leggy robot crawling around your guts is naturally one of shock and awe, but if you really think about the other surgical and endoscopic options, they're all a little offputting as well: tubes, little cameras on wires, so why the hell not a tiny-legged robot pill? The 25mm long and 10mm diameter crawling capsule was created by researchers in Italy and Korea and once the pill is swallowed the soft coating dissolves and the crazy-legged robot starts its course. The only issue might be one of control, since we're sure the patient won't be none too pleased when some rogue robot goes starts aimlessly inspecting his intestines.

[Via
Near Future]

Medical-miracles-that were –NOT!

Crawling robot pill

Wednesday, September 02, 2009

తెలుగుల చక్కెరరోగం సదువు

తెలుగులో డయబెటీసు విద్య అని నేనొక బ్లాగు ప్రజలకు ఉపయోగపడెందుకు వ్రాస్తున్నాన్ను .
కాని కాలాభావం వల్ల మరియు తెలుగు బాష వాదుక తగ్గిపోఇనందువల్ల్ తర్జుమా చేయదం కష్తతరమై ఎక్కువ విషయాలు చెప్పలేక పోతున్నాను .
ఎవరైన తెలుగు బాగ తెలిసినవారు
వీటిని తెలుగులోకి అనువదిస్తే అది అందరికి ఉపయోగ పడుతుంది.
మీ నుంచి ఈ సహాయాని అర్థిస్తున్నను .
మీకు వీలైతే నా ఇమెయిల్ కి రయగలరు
నమస్కారం
haridallas@gmail.com
http://diabetiisu.blogspot.com/
తెలుగుల చక్కెరరోగం సదువు అని నేనో బ్లాగు శాన మందికి పనికొస్తదని రాస్తున్న గాని తెలుగ్ సక్కంగ రాక తర్జుమా చేసేది ఐతలేదు.అదిగాక పని తెమల్తలేదు రాయనికి టైం జాల్తలేదు
ఎవళ్ళన్న తెలుగు బాగొచ్చినోల్లు
ఈటిని తెలుగుల తర్జుమజేస్తె అది అందరికి పనికొస్తది, యెవురైనా సరె గిది చెయ్యనికి మనసుబడ్తె నాకు రాయుండి దండాలు
హరిడల్లస్
haridallas@gmail.com
http://diabetiisu.blogspot.com/

Thursday, July 30, 2009

उच्च रक्तचाप ' मौन स्ट्रोक" पैदा कर सकता हैं

उच्च रक्तचाप ' मौन स्ट्रोक" पैदा कर सकता हैं

"मौन" स्ट्रोक
में मस्तिष्क क्षति का कोई भी लक्षण
नहीं
होता है. लेकिन दिमाग का नुकसान होता है

60 से अधिक उम्र के आम लोगों में और उच्च रक्तचाप के साथ लोगों को विशेष रूप से होते हैं.

स्वास्थ्य पर धीरे मोटापे का असर के अतिरिक्त निवारण के लिए किया जा सकता है: विशेषज्ञ

स्वास्थ्य पर धीरे मोटापे का असर के अतिरिक्त निवारण के लिए किया जा सकता है: विशेषज्ञ


 

वजन शाकर्स स्लाइड शो स्टीवन रिन्बर्ग से <

मंगलवार, 28 जुलाई (HealthDay News) -- <BR> मंगलवार वॉशिंगटन डीसी में विशेषज्ञों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन में रिपोर्ट. संयुक्त राज्य अमेरिका में अब मोटापा प्रत्यक्ष चिकित्सा की कीमत में प्रति वर्ष $ 147 अरब की भारी कीमत वहन < <BR>&nbsp; सभी चिकित्सा व्यय की बस पर 9%, <BR>&nbsp; <BR> <BR><BR>"परिप्रेक्ष्य में, यह राशि डाल करने के लिए <BR>&nbsp; अमेरिकन कैंसर सोसायटी <BR>&nbsp; अनुमान है कि <BR>सभी कैंसर <BR>&nbsp; संयुक्त लागत <BR>&nbsp; हमारे स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली <BR>$ 93 बिलियन एक वर्ष. <BR>तो मोटापा समाप्त <BR> <BR>&nbsp; हमारे स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली <BR>&nbsp; 50% अधिक डॉलर <BR>&nbsp; कैंसर का इलाज, "से अधिक बच होगा

Monday, July 27, 2009

I have this new office 2007 which makes it much more easier to post my blog postings.

I hope to post at least a few postings on a daily basis

Thursday, July 23, 2009

मधुमेह के उपचार के लिए नयी इंसुलिन

Home » विभिन्न » 18 July 2009 »

मधुमेह के उपचार के लिए नयी इंसुलिन

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मधुमेह से पीड़ित रोगियों के लिए भारतीय बाजार में एक देशी दवा कंपनी ने ऐसी प्रभावी इंसुलिन ईजाद की है जिसका इस्तेमाल रोगी भोजन से पहले या भोजन के बाद कभी भी कर सकता है।
मधुमेह रोग के विशेषज्ञ डा. कर्नल सुरेंद्र कुमार के अनुसार देश में पहली बार इस तरह की इंसुलिन देशी कंपनी द्वारा तैयार की गयी है जिससे रोगी को बहुत लाभ मिल सकता है और इसका असर 24 घंटे तक रहता है। उन्होंने कहा कि बायोकान फार्मेसी ने इस वर्ष मई में इस इंसुलिन को भारतीय बाजार में उतारा है।
डा. कुमार के अनुसार देश में यह इंसुलिन आयात की जाने वाली इंसुलिन की तुलना में कहीं सस्ती और आसानी से उपलब्ध है। उन्होंने कहा कि अमेरिका की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी इस दवा का उत्पादन करती थी लेकिन अब भारतीय कंपनी ने देश में ही इसका उत्पादन शुरू कर दिया है।
देश में मधुमेह कमजोर वर्ग को तेजी से अपनी चपेट में ले रहा है। एक अनुमान के अनुसार देश में इस समय 10 से 11 प्रतिशत उच्च जीवनशैली के लोग इस बीमारी की चपेट में हैं जबकि निचले स्तर के 33 प्रतिशत लोगों में यह रोग फैल चुका है। एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 1995 में इस रोग से करीब 1.9 करोड़ लोग पीड़ित थे और वर्ष 2025 तक इसकी चपेट में करीब छह करोड़ लोग आ सकते हैं।
मधुमेह एक खतरनाक रोग है। रोगी जो भोजन खाता है उसके शरीर को उससे पोषण नहीं मिलता है, रोगी जब भोजन करता है तो उसके शरीर की शर्करा (शुगर) बढ़ जाती है लेकिन इंसुलिन इसे संतुलित रखती हैं। जिन लोगों को यह रोग नहीं होता है उनकी इंसुलिन स्वतः बनती रहती है लेकिन इंसुलिन नहीं होने पर शुगर बढ़ जाता है जो व्यक्ति के रक्त संचार, धमनियां, किडनी, जननांग, हृदय तथा आंखों को प्रभावित करता है। मधुमेह के रोगी को जबरदस्त प्यास लगती है और बार-बार पेशाब आता है। रोगी की भूख बढ़ जाती है और अनेक मामलों में उसे धुंधला दिखने लगता है। उसका वजन घटता है अथवा बढ़ता है उसे अक्सर थकान महसूस होती है और नींद आती है। इसके अतिरिक्त रोगी के हाथ या पांव सुन्न हो जाते हैं और महिलाओं के गुप्तांग में खुजली तथा इन्फेक्शन की शिकायत रहती है। इसके अलावा घाव देर से भरता है तथा पसीना ज्यादा आता है।
चिकित्सकों का मानना है कि यह रोग वैसे तो सारी दुनिया के लिये चिंता का कारण बना हुआ है पर भारतीय जीवनशैली में आ रहे बदलाव की वजह से यह रोग भारत में तेजी से फैल रहा है, इसलिए इस रोग से बचाव के तरीकों पर जनजागरण सम्मेलन चलाये जाने चाहिए।

Wednesday, July 22, 2009

are you at risk for the fastest groing epidemic ?


please click on the heading now and see if you are at risk


a nice video about risks for diabetes
and a site which has various international languages sadly lacking indian languages

Monday, July 20, 2009

టెస్టింగ్ మాత్రమె ఇక ముందు మరి ఎన్నో మంచి డయాబెటిక్( మదుమేహం ) లకు సరిపడే వంటలు అందించాలని మా ఆశయం

చికన్ చావల్ పంద్రా



4 సర్వింగులు

క్యాన్ చికెన్
టెస్టింగ్ మాత్రమె ఇక ముందు మరి ఎన్నో మంచి డయాబెటిక్ లకు సరిపడే వంటలు అందించాలని మా ఆశయం
1 టేబుల్ స్పూన్ నూనె
1 1/4 lb చికెన్ ,బోనేలేస్స్ స్కిన్ లెస్ బ్రెస్ట్ సగాలు ,(about 4 )
1క్యాన్ క్రీం ఆఫ్ చికెన్ సూప్ , కండెన్స్ d (10 3/4 oz)
1 సూప్ కాన్ (1 1/3 కప్స్ ) నీళ్ళు లేదా స్కిమ్ముడ్ పాలు
2 కప్స్ రైస్ ,
2 కప్స్ బ్రొక్కొలి ,(ఫ్రెష్ లేదా ఫ్రోజెన్ ఫ్లోరేట్స్, థా ఛేసి )
చేసే పధ్ధతి
1. ఒక పెద్ద నాన్స్టిక్ మూకుడిలో మీడియం -హై వేడి మీద పెట్టి చికెన్ ని ; 5 నిమిషాలు రెండు వైపులు బాగా బ్రౌన్ అయ్యేదాకా వేయించాలి
2. సూపు నీళ్ళు కలిపి . మరిగించాలి
3. బియ్యం ఇంకా బ్రొక్కొలి .చికెన్ తోబాటు వేసి ;ముఉత పెట్టి మధ్యస్తం సెగ మీద కలుపుతూ వండాలి 5 నిమిషాల సేపు
బెల్ పెప్పెర్ ని చిన్న పొడుగాటి స్త్రిప్స్ దానికి కలిపి ఆరగించాలి .


చికెన్ , ఫస్ట్ కోర్సు , అమెరికన్ , అడ్వాన్సు
నుట్రిషన్ ఫాక్ట్స్
సెర్వింగ్ సైజు 431.9g

ప్రతి సెర్వింగ్
కాలోరిలు 665
కొవ్వు నుండి కాలోరిలు116

% రోజు కు కావలసిన దాంట్లో శాతం
మొత్తమ్ కొవ్వు 12.9g 20%
కెంద్రిక్రుతమైన (సాచురేటేడ్) కొవ్వు 3.1g 16%
కొలెస్టరాల్ 115mg 38%


సోడియం 610mg 25%
మొత్తం పిండి పదార్తాలు 82.3g 27%


ఫైబెర్ 2.3g 9%
చక్కర 1.3g
ప్రోటీన్ 50.7g

విటమిన్ A 9% • విటమిన్ C 66%
కాల్సియం 8% • ఐరన్ 36%

* 2000 కాలోరీ డైట్ మీద ఆధార పడి
nu

Chikan Chaaval Pandrah Recipe


Chikan Chaaval Pandrah Recipe








Makes 4 servings






easy quick rice chiken dish



Ingredients
























1 tablespoon oil
1 1/4 lb chicken ,boneless skinless breast halves ,(about 4 )
1 can cream of chicken soup, condensed (10 3/4 oz)
1 soup can (1 1/3 cups) water or skim milk
2 cups rice, uncooked (Minute Original)
2 cups broccoli ,(fresh or frozen florets, thawed)

Directions

  1. Heat oil in large nonstick skillet on medium-high heat. Add chicken;
    cook 5 minutes on each side or until lightly browned. Remove from skillet.




  2. Add soup and water to skillet. Bring to boil.




  3. Stir in rice and broccoli. Top with chicken; cover. Cook on low heat 5
    minutes. Stir. Garnish with bell pepper strips.





Categories



Chicken,
First Course,
American,
Advance

























































Nutrition Facts


Serving Size 431.9g



Amount Per Serving




Calories

665



Calories from Fat

116






% Daily Value*





Total Fat

12.9g



20%





Saturated Fat

3.1g



16%





Cholesterol

115mg



38%





Sodium

610mg



25%





Total Carbohydrates

82.3g



27%





Dietary Fiber

2.3g



9%





Sugars

1.3g






Protein

50.7g















Vitamin A 9% Vitamin C 66%
Calcium 8% Iron 36%




* Based on a

2000 calorie diet




Nutritional details are an estimate and should only
be used as a guide for approximation.







Legend





Fat


Protein


Carbs


Alcohol


Other




Calorie Breakdown (?)

Nutrition Breakdown

Daily Values (?)

Daily Values


Nutritional Analysis










Nutrition Grade

96% confidence


B+
Good points

  • Very low in

    sugar

  • High in
    niacin

  • High in
    selenium



  • जूते की आकार के बारे में एक दिलचस्प टिप्पणि

    जूते की आकार के बारे में एक दिलचस्प टिप्पणियों का संमूह निक्सन और सहकर्मियों द्वारा किया गया था
    जो लगातार 440 पादचिकित्सा रोगियों के एक अध्ययन में पाया. अधिकांश रोगि पुरुष और सेवानिवृत्त सैनिक थे उनमें से 58% रोगियों को मधुमेह था.
    केवल 25% रोगि, उपयुक्त आकारके जूते पहने थे.
    लोग जीने मधुमेह सम्बंदिथ पैरों पर अल्सरेशन/ गाव हुवा था, उन लोगो में एक घाव बिना रोगी से ,पांच बार से अधिक खराब फिटिंग जूते पहन ने की संभावना था

    सबसे उपयुक्त दृष्टिकोण
    टी सुंग और सहयोगियों ने पता लगाया था
    एक विशेष जूते के अंदर डालने वाली औजार (जिसे इन्सोल कहते है ) इस्तेमाल किया तो पैर पर गिरने वाला प्रेशर की कंठी हुयी थी . जबकि सिद्दी( फलाट ) इन्सोल ढलवां(मोल्डिंग )कियी गयी इन्सोल सबसे अच्छा है, जब एक इन्सोल की ढलवां(मोल्डिंग )कियी जा राही है (जब गठन करने का कार्य किया)
    ताब पैरों पर आंशिक भार डालना ,पैर पर कोई भार नहीं डालने या पूरा भार डालने से बेहतर है
    इसीलिए जब उपकरण ढलवां किया जा रहा है आंशिक (आधिसी) वजन डालनी चाहिये

    Sunday, July 19, 2009

    info in gujrathi માંદુમેહ ડયબેઠિજ્ દયબેટિસ્ ડયબેઠિક્

    http://ndep.nih.gov/media/GujaratiTipsheet.pdf
    in gujrathi

    માંદુમેહ ડયબેઠિજ્ દયબેટિસ્ ડયબેઠિક્

    दयाबेठिस से बचे रहने के लिए हेडिंग पर क्लिक करे

    http://ndep.nih.gov/media/HindiTipsheet.pdf

    NDEP का पाम फ्लेट
    हेडिंग पर क्लिक करे

    diabetesinfo from NDEP in Hindi

    http://ndep.nih.gov/media/TCH_AsAm_flyer_Hin.pdf

    Multilingual NDEP Diabetes Campaign

    Multilingual NDEP Diabetes Campaign



    The National Diabetes Education Program has launched a national campaign reaching out to health care professionals and their patients to emphasize the importance of comprehensive control of diabetes and cardiovascular disease.

    The “Control Your Diabetes. For Life.” program features free brochures and tip sheets including “Take Care of Your Heart. Manage Your Diabetes,” “Guiding Principles for Diabetes Care,” and “Diabetes Numbers at-a-Glance.” Several brochures are available in Spanish, and there are offerings translated into 15 other languages, including Chinese, Hindi, Hmong, Tagalog, Thai, and more.

    For more information, call 888-693-6337 or visit www.YourDiabetesInfo.org.

    Repeat Perfusion Imaging Helps Assess CAD Risk in Diabetics

    Repeat Perfusion Imaging Helps Assess CAD Risk in Diabetics



    NEW YORK — Negative results in a myocardial perfusion imaging study offer no assurance that a patient won't later develop coronary artery disease, especially if the patient has diabetes and more than 2 years have passed since the negative study,

    “Physicians need to have a low threshold for doing repeat myocardial perfusion imaging [MPI] on a patient with diabetes,” he said. “They need to have a broad definition of the symptoms that should trigger a second MPI in these patients.”

    Examples of atypical symptoms that should raise concern about coronary disease in patients with diabetes include dyspnea, sharp chest pain, and variable responses to exertion

    Midlife Diabetes Diagnosis Doubles Dementia Risk

    Midlife Diabetes Diagnosis Doubles Dementia Risk



    A midlife diagnosis of diabetes increases the risk of developing Alzheimer's disease and vascular dementia, based on results of a twin study including more than 13,000 individuals.

    Previous studies have shown that people with diabetes are at increased risk for dementia, but little is known about the mechanism of action, wrote Dr. Weili Xu of the Karolinska Institutet, Stockholm, and the Stockholm Gerontology Research Center. Dr. Xu and colleagues conducted this twin study to examine the effect of diabetes on dementia and assess the possible role of genetics (Diabetes 2009;58:71–7).

    Midlife Diabetes Diagnosis Doubles Dementia Risk

    Midlife Diabetes Diagnosis Doubles Dementia Risk



    A midlife diagnosis of diabetes increases the risk of developing Alzheimer's disease and vascular dementia, based on results of a twin study including more than 13,000 individuals.

    Previous studies have shown that people with diabetes are at increased risk for dementia, but little is known about the mechanism of action, wrote Dr. Weili Xu of the Karolinska Institutet, Stockholm, and the Stockholm Gerontology Research Center. Dr. Xu and colleagues conducted this twin study to examine the effect of diabetes on dementia and assess the possible role of genetics (Diabetes 2009;58:71–7).

    No Links Found Between Statin Use and Memory Loss

    No Links Found Between Statin Use and Memory Loss

    DOUG BRUNK (San Diego Bureau)

    SALT LAKE CITY — Despite case reports of memory problems linked to the use of statins in older people, data from the large studies of statins to date find no apparent association.

    Benefit of Intensive Glycemic Control Challenged

    Internal med news Volume 41, Issue 12, Page 1 (15 June 2008)

    Benefit of Intensive Glycemic Control Challenged: Macrovascular event rates not reduced.
    SAN FRANCISCO — Lowering hemoglobin A1c levels below currently recommended levels did not reduce the risk of macrovascular events in high-risk patients with established type 2 diabetes in two large studies, and significantly increased the risk of death in one of the studies.
    Clinicians should focus on managing blood pressure and lipid levels to reduce cardiovascular risk in patients with type 2 diabetes who are at high risk for macrovascular complications, and stick to the currently recommended goal of an HbA1c level between 7% and 7.9%, several investigators suggested during a press briefing held at the annual scientific sessions of the American Diabetes Association.
    Approximately 25% of people with diabetes might fall into this high-risk category of patients, experts at the press briefing estimated. There were suggestions in some of the data that intensive glycemic control may reduce cardiovascular events in lower-risk patients.
    The 11,140-patient ADVANCE (Action in Diabetes and Vascular Disease: Preterax and Diamicron Modified Release Controlled Evaluation) trial targeted an HbA1c level of 6.5% or lower. The 10,251-patient ACCORD (Action to Control Cardiovascular Risk in Diabetes) trial aimed for an HbA1c level of 6% or lower. Approximately one-third of patients in each study (32% in ADVANCE and 35% in ACCORD) had a past cardiovascular event such as MI or stroke, and the rest of the cohorts had risk factors or subclinical disease that put them at high risk.
    The studies used different pharmacologic strategies and showed that each could achieve and maintain tight glycemic control, but with different risks and benefits. Both studies were published online in the New England Journal of Medicine and will appear in the June 12 issue of the print journal.
    In the ADVANCE study, reducing HbA1c levels from an average baseline of 7.5% to 6.5% after 5 years of intensive treatment reduced the risk of new or worsening nephropathy by 21%, compared with the standard group, which achieved an HbA1c level of 7.3% (N. Engl. J. Med. 2008 June 6 [doi:10.1056/NEJMoa0802987]). The incidence of nephropathy was 4.1% in the intensive group and 5.2% in the standard group.
    These results confirm previous studies that showed that intensive control of blood glucose helps prevent microvascular complications, reported Dr. Anushka Patel of the University of Sydney, Australia.
    The rate of severe hypoglycemic events was significantly higher in the intensive group than the standard group (2.7% vs. 1.5%). Intensive glycemic control did not significantly affect the rates of heart attack, stroke, or death from cardiovascular disease, although there was a trend toward improvement in these macrovascular outcomes.
    The ADVANCE trial was funded by the Australian government and the pharmaceutical company Servier, which makes some of the diabetes medications used in the trial. Dr. Patel has received lecture fees or grants from Servier, Pfizer Inc., Abbott Laboratories, and Sanofi-Aventis.
    In the ACCORD study, reducing HbA1c levels from an average baseline of 8.2% to 6.4% after 3.5 years of treatment in the intensive group (compared with 7.5% in the standard group) was associated with a 22% relative increase in all-cause mortality (N. Engl. J. Med. 2008 June 6 [doi:10.1056/NEJMoa0802743]). Death rates were 1.4% in the intensive therapy group and 1.1% in the standard treatment group, reported Dr. Hertzel Gerstein, lead investigator in the trial and professor of medicine at McMaster University, Hamilton, Ont.
    That interim finding prompted the National Heart, Lung, and Blood Institute (NHLBI) to stop the intensive therapy group earlier this year, 18 months before the end of the 5-year trial. Patients on intensive therapy were switched to standard glycemic control for the remainder of the study.
    The ACCORD study was funded primarily by the NHLBI; medications and equipment were supplied by 12 pharmaceutical and health care companies. Dr. Gerstein is an adviser to or has received funds from 15 pharmaceutical companies, including some that make diabetes treatments.
    The incidence of combined fatal and nonfatal cardiovascular events did not differ significantly between groups—6.9% with intensive control and 7.2% with standard control. Secondary outcomes showed a 35% higher relative risk for cardiovascular-related deaths in the intensive therapy group and a 24% lower relative risk for nonfatal heart attacks in the standard therapy group. Both of the differences were significant.
    The ADVANCE study, the largest trial to date of treatment to prevent complications in diabetes, randomized patients at 215 centers on four continents. All patients received the ACE inhibitor perindopril and the diuretic indapamide or placebo for blood pressure control. Diabetes treatment started with the sulfonylurea gliclazide (modified release, 30–120 mg daily), and physicians could add other drugs as needed.
    By the end of the study, most patients were on multiple medications, and around 30% were using insulin.
    “We tested a strategy for glucose control, not a particular drug,” emphasized Stephen McMahon, Ph.D., professor of cardiovascular medicine and epidemiology at the University of Sydney, Australia, and an investigator in the ADVANCE study. Dr. McMahon is an adviser to or has received fees or grants from Servier, Pfizer, and Novartis.
    The ACCORD trial also did not focus on a particular drug, said Dr. Denise G. Simons-Morton of the NHLBI. The findings apply to a combination of three things—the particular treatment strategy, the glycemic goal, and the population of high-risk patients. Dr. Simons-Morton disclosed no potential conflicts of interest.
    The ACCORD study, which was conducted at 77 sites in North America, incorporated three complementary strategies for intensive or standard control of blood sugar levels, blood pressure, or lipids. The blood pressure and lipid portions of the trial continue.
    For diabetes treatment, physicians could choose from any of the approved drug classes. Analyses of the interim results could find no specific reason for the increased risk of death from intensive glycemic control.
    “The only conclusion we can make is [that] it is the strategy causing increased risk,” Dr. Gerstein said.
    A secondary analysis suggested that intensive control did decrease the incidence of fatal and nonfatal cardiovascular events in patients with no previous cardiovascular event, he added.
    The studies differed in some key respects. The decrease in HbA1c levels with intensive therapy was quicker in ACCORD than in ADVANCE. ACCORD patients had higher HbA1c levels; glucose control at the start of ADVANCE was better than at the end of ACCORD. The intensive therapy group in ACCORD gained 8 pounds on average, compared with no significant weight gain in the ADVANCE intensive group. None of these factors were associated with increased risk for macrovascular events, the investigators said.
    Based on results from both studies, said Dr. John Buse, professor of medicine at the University of North Carolina at Chapel Hill and vice chair of the ACCORD steering committee, “Focusing on blood pressure and lipids is really where the money is if you want to decrease cardiovascular events” in high-risk patients with diabetes.
    Dr. Buse, who is president of the ADA, reported having an equity interest in Insulet, MicroIslet, and dLife and receiving grant support from Bristol-Myers Squibb, Novartis, Pfizer, Novo Nordisk, Amylin Pharmaceuticals, Eli Lilly & Co., and Medtronic. Dr. Buse is an adviser, consultant, and speaker for Merck & Co., which makes medications for diabetes, hypertension, hyperlipidemia, and other diseases.
    Also in the June 6 online issue of the New England Journal of Medicine, the journal's editors, Dr. Robert G. Dluhy and Dr. Graham T. McMahon, wrote in an editorial that clinicians could better serve patients by helping more of them reach current goals for glycemic control rather than focusing on intensive control, and use other strategies to reduce cardiovascular risk (N. Engl. J. Med. 2008 June 6 [doi:10.1056/NEJMe0804182]). They reported no conflicts of interest related to these topics.

    Benefit of Intensive Glycemic Control Challenged

    Internal med news Volume 41, Issue 12, Page 1 (15 June 2008)

    Benefit of Intensive Glycemic Control Challenged: Macrovascular event rates not reduced.
    SAN FRANCISCO — Lowering hemoglobin A1c levels below currently recommended levels did not reduce the risk of macrovascular events in high-risk patients with established type 2 diabetes in two large studies, and significantly increased the risk of death in one of the studies.
    Clinicians should focus on managing blood pressure and lipid levels to reduce cardiovascular risk in patients with type 2 diabetes who are at high risk for macrovascular complications, and stick to the currently recommended goal of an HbA1c level between 7% and 7.9%, several investigators suggested during a press briefing held at the annual scientific sessions of the American Diabetes Association.
    Approximately 25% of people with diabetes might fall into this high-risk category of patients, experts at the press briefing estimated. There were suggestions in some of the data that intensive glycemic control may reduce cardiovascular events in lower-risk patients.
    The 11,140-patient ADVANCE (Action in Diabetes and Vascular Disease: Preterax and Diamicron Modified Release Controlled Evaluation) trial targeted an HbA1c level of 6.5% or lower. The 10,251-patient ACCORD (Action to Control Cardiovascular Risk in Diabetes) trial aimed for an HbA1c level of 6% or lower. Approximately one-third of patients in each study (32% in ADVANCE and 35% in ACCORD) had a past cardiovascular event such as MI or stroke, and the rest of the cohorts had risk factors or subclinical disease that put them at high risk.
    The studies used different pharmacologic strategies and showed that each could achieve and maintain tight glycemic control, but with different risks and benefits. Both studies were published online in the New England Journal of Medicine and will appear in the June 12 issue of the print journal.
    In the ADVANCE study, reducing HbA1c levels from an average baseline of 7.5% to 6.5% after 5 years of intensive treatment reduced the risk of new or worsening nephropathy by 21%, compared with the standard group, which achieved an HbA1c level of 7.3% (N. Engl. J. Med. 2008 June 6 [doi:10.1056/NEJMoa0802987]). The incidence of nephropathy was 4.1% in the intensive group and 5.2% in the standard group.
    These results confirm previous studies that showed that intensive control of blood glucose helps prevent microvascular complications, reported Dr. Anushka Patel of the University of Sydney, Australia.
    The rate of severe hypoglycemic events was significantly higher in the intensive group than the standard group (2.7% vs. 1.5%). Intensive glycemic control did not significantly affect the rates of heart attack, stroke, or death from cardiovascular disease, although there was a trend toward improvement in these macrovascular outcomes.
    The ADVANCE trial was funded by the Australian government and the pharmaceutical company Servier, which makes some of the diabetes medications used in the trial. Dr. Patel has received lecture fees or grants from Servier, Pfizer Inc., Abbott Laboratories, and Sanofi-Aventis.
    In the ACCORD study, reducing HbA1c levels from an average baseline of 8.2% to 6.4% after 3.5 years of treatment in the intensive group (compared with 7.5% in the standard group) was associated with a 22% relative increase in all-cause mortality (N. Engl. J. Med. 2008 June 6 [doi:10.1056/NEJMoa0802743]). Death rates were 1.4% in the intensive therapy group and 1.1% in the standard treatment group, reported Dr. Hertzel Gerstein, lead investigator in the trial and professor of medicine at McMaster University, Hamilton, Ont.
    That interim finding prompted the National Heart, Lung, and Blood Institute (NHLBI) to stop the intensive therapy group earlier this year, 18 months before the end of the 5-year trial. Patients on intensive therapy were switched to standard glycemic control for the remainder of the study.
    The ACCORD study was funded primarily by the NHLBI; medications and equipment were supplied by 12 pharmaceutical and health care companies. Dr. Gerstein is an adviser to or has received funds from 15 pharmaceutical companies, including some that make diabetes treatments.
    The incidence of combined fatal and nonfatal cardiovascular events did not differ significantly between groups—6.9% with intensive control and 7.2% with standard control. Secondary outcomes showed a 35% higher relative risk for cardiovascular-related deaths in the intensive therapy group and a 24% lower relative risk for nonfatal heart attacks in the standard therapy group. Both of the differences were significant.
    The ADVANCE study, the largest trial to date of treatment to prevent complications in diabetes, randomized patients at 215 centers on four continents. All patients received the ACE inhibitor perindopril and the diuretic indapamide or placebo for blood pressure control. Diabetes treatment started with the sulfonylurea gliclazide (modified release, 30–120 mg daily), and physicians could add other drugs as needed.
    By the end of the study, most patients were on multiple medications, and around 30% were using insulin.
    “We tested a strategy for glucose control, not a particular drug,” emphasized Stephen McMahon, Ph.D., professor of cardiovascular medicine and epidemiology at the University of Sydney, Australia, and an investigator in the ADVANCE study. Dr. McMahon is an adviser to or has received fees or grants from Servier, Pfizer, and Novartis.
    The ACCORD trial also did not focus on a particular drug, said Dr. Denise G. Simons-Morton of the NHLBI. The findings apply to a combination of three things—the particular treatment strategy, the glycemic goal, and the population of high-risk patients. Dr. Simons-Morton disclosed no potential conflicts of interest.
    The ACCORD study, which was conducted at 77 sites in North America, incorporated three complementary strategies for intensive or standard control of blood sugar levels, blood pressure, or lipids. The blood pressure and lipid portions of the trial continue.
    For diabetes treatment, physicians could choose from any of the approved drug classes. Analyses of the interim results could find no specific reason for the increased risk of death from intensive glycemic control.
    “The only conclusion we can make is [that] it is the strategy causing increased risk,” Dr. Gerstein said.
    A secondary analysis suggested that intensive control did decrease the incidence of fatal and nonfatal cardiovascular events in patients with no previous cardiovascular event, he added.
    The studies differed in some key respects. The decrease in HbA1c levels with intensive therapy was quicker in ACCORD than in ADVANCE. ACCORD patients had higher HbA1c levels; glucose control at the start of ADVANCE was better than at the end of ACCORD. The intensive therapy group in ACCORD gained 8 pounds on average, compared with no significant weight gain in the ADVANCE intensive group. None of these factors were associated with increased risk for macrovascular events, the investigators said.
    Based on results from both studies, said Dr. John Buse, professor of medicine at the University of North Carolina at Chapel Hill and vice chair of the ACCORD steering committee, “Focusing on blood pressure and lipids is really where the money is if you want to decrease cardiovascular events” in high-risk patients with diabetes.
    Dr. Buse, who is president of the ADA, reported having an equity interest in Insulet, MicroIslet, and dLife and receiving grant support from Bristol-Myers Squibb, Novartis, Pfizer, Novo Nordisk, Amylin Pharmaceuticals, Eli Lilly & Co., and Medtronic. Dr. Buse is an adviser, consultant, and speaker for Merck & Co., which makes medications for diabetes, hypertension, hyperlipidemia, and other diseases.
    Also in the June 6 online issue of the New England Journal of Medicine, the journal's editors, Dr. Robert G. Dluhy and Dr. Graham T. McMahon, wrote in an editorial that clinicians could better serve patients by helping more of them reach current goals for glycemic control rather than focusing on intensive control, and use other strategies to reduce cardiovascular risk (N. Engl. J. Med. 2008 June 6 [doi:10.1056/NEJMe0804182]). They reported no conflicts of interest related to these topics.

    Saturday, July 18, 2009

    Insoles in pressure reduction

    An interesting set of observations regarding shoe

    sizing was made by Nixon and colleagues,395 who found in a study of 440 consecutive podiatry patients (the

    being male military veterans, 58% of whom had diabetes) that only 25% of patients wore appropriate sized shoes. People with current diabetic foot ulceration were five times more likely to have poorly fitting shoes than were those without a wound. The most appropriate approach to casting the feet for the prescription of custom

    insoles was explored by Tsung and colleagues. those authors found that.

    foot-shape-based insoles were superior to flat insoles in pressure reduction and that semi-weight- bearing casts were better than . non-weight or full weight- bearing casts

    Sunday, July 12, 2009

    languages for SEo

    ಬೆಂಗಾಲಿ,ಗುಜರಾತಿ,ಹಿಂದಿ,ಕನ್ನಡ,ಮಲಯಾಳಂ,ಮರಾಠಿ ,ನೇಪಾಲಿ ಪುನ್ಜಬಿ,ತಮಿಳ್,ತೆಲುಗು,ಉರ್ದು બેન્ગલી ગુજરાતી હિન્દી કન્નડા મલયાલમ -રાથી,નેપાળી,પુન્જબી,તમિલ,તેલુગુ,ઉર્દુ,ബെന്ങളി,ഗുജരടി,ഹിന്ദി,കന്നഡ,മലയാളം,മറാത്തി,നേപാളി,പ്ഞ്ഞാബി,തമിള്‍,തെലുഗ്,ഉര്‍ദു
    பெங்காலி ,குஜரடி ,ஹிந்தி ,கன்னட ,மலையாளம் , மராத்தி ,நேபாளி ,புஞ்சபி ,தமிழ் ,தெலுகு ,உர்து
    ਬੇੰਗਾਲੀ ,ਗੁਜਰਾਤੀ ,ਹਿੰਦੀ ,ਕੰਨਾਦਾ ,ਮਲਯਾਲਮ, ਮਰਾਠੀ,ਨੇਪਾਲੀ,ਪੰਜਾਬੀ,ਤਮਿਲ,ਤੇਲੁਗੁ,ਉਰਦੂ
    బెంగాలీ ,గుజరాతీ ,హిందీ ,కన్నడ ,మలయాళం , మరాఠీ,నేపాలీ ,పంజాబీ ,తమిళ్ ,తెలుగు ,ఉర్దూ
    بنگالی ,گجراتی ,ہندی , کنندہ ,ملیالم , مراٹھی ,نیپالی پنجابی ,تامل ,تیلگو , اردو
    Bengali,Gujarati,Hindi,Kannada,Malayalam, Marathi,Nepali,Punjabi,Tamil,Telugu,Urdu

    आव्हान मातामृत्यू रोखण्याचे

    आव्हान मातामृत्यू रोखण्याचे
    डॉ. अंजली राडकर
    Thursday, January 22nd, 2009 AT 8:01 PM

    संयुक्त राष्ट्रांनी सप्टेंबर २००० मध्ये नव्या सहस्रकासाठी विकासाची उद्दिष्टे (मिलेनिअम गोल्स) ठरवली आहेत. दारिद्य्र निर्मूलन, प्रत्येकाला किमान प्राथमिक शिक्षण, लिंगभाव कमी करणे, महिलांचे सबलीकरण, बालमृत्यू आणि मातामृत्यूचे प्रमाण कमी करणे, एड्‌स-मलेरियाशी मुकाबला करणे, पर्यावरणाची हानी टाळत शाश्‍वत विकास साध्य करणे आणि विकासासाठी साऱ्या देशांनी एकत्र येणे.. अशी आठ उद्दिष्टे निश्‍चित करण्यात आली आहेत.
    सध्या महाराष्ट्रात चर्चेत असलेला मातामृत्यूचा विषय हा "मिलेनिअम गोल्स'चा एक भाग आहे. विकसनशील आणि गरीब देशांना हा प्रश्‍न मोठ्या प्रमाणावर भेडसावत आहे. मातामृत्यू म्हणजे स्त्रीचा गरोदरपणात, प्रसूतीच्या वेळी अगर प्रसूती किंवा गर्भपातानंतर ४२ दिवसांत होणारा मृत्यू. मात्र मातामृत्यू ठरण्यासाठी मृत्यूचे कारण मूल होण्याशी निगडित असायला हवे. एक लाख जिवंत जन्मामागे किती मातांचा मृत्यू होतो, यावरून मातामृत्यू दर काढला जातो. हे प्रमाण २००७ मध्ये दोनशेपर्यंत आणि २०१५ मध्ये १०९ पर्यंत खाली आणण्याचे उद्दिष्ट भारतासमोर होते. "युनिसेफ'च्या ताज्या अहवालानुसार २००० ते २००७ या काळात मातामृत्यूचे भारतातील प्रमाण ४५० आढळून आले आहे. म्हणजेच २००७ मध्ये ते दोनशेपर्यंत खाली आणणे शक्‍य झालेले नाही. हे उद्दिष्ट आता गाठायचे असेल, तर मातामृत्यूदर दर वर्षी ५०५ टक्‍क्‍यांनी खाली आणायला हवे; पण तो फक्त एक टक्‍क्‍याने खाली गेला आहे. सन २०१५ मध्ये मातामृत्यूचे प्रमाण १०९ पर्यंत खाली आणावयाचे आहे.
    त्यासाठी तर आपल्याला खूप वेगाने काम करण्याची गरज आहे. जबाबदारी विकसनशील देशांची वास्तविक मातामृत्यू म्हणजे स्त्रीच्या आयुष्यातील घटनाक्रमाचे फलित. स्त्रीच्या बाबतीत सारे काही सुरळीत घडत गेले, तर जवळजवळ सर्वच मातामृत्यू थांबवणे तत्त्वतः शक्‍य आहे; पण तसे होत नाही. मातामृत्यू कमी असणे हा सार्वजनिक आरोग्याचा; तसेच एकूणच विकासाचा महत्त्वाचा निर्देशांक मानला जातो आणि त्याची विकसित आणि विकसनशील देशांमधील दरी फार मोठी आहे.
    विकसनशील देशांचा मातामृत्यू दर विकसित देशांच्या माता मृत्यूदरापेक्षा दोनशे पटींनी अधिक आहे. जगातील एकूण मातामृत्यूंपैकी ९९ टक्के मातामृत्यू विकसनशील देशांत होतात. त्यामुळे मातामृत्यू कमी करण्याची जबाबदारी विकसनशील देशांवर आहे. भारतासारख्या देशात एकूणच अचूक आकडेवारी मिळणे अवघड आणि त्यातून मृत्यूंची तर फारच अवघड! घडून गेलेली घटना आणि आता त्या माहितीचा काय उपयोग, अशीच भावना असते. त्यातच मातामृत्यू हा संवेदनशील किंवा फारसे न बोलण्याचा विषय. त्यामुळे जरी हा दर; तसेच मातामृत्यूंची संख्या मोठी असली, तरी त्याविषयी अचूक आणि आवश्‍यक माहिती उपलब्ध नाही. एखादा अभ्यास करून माहिती मिळवावी, तर त्यासाठी लागणारा नमुनाही मोठा असणार. त्यामुळे तेही जवळपास शक्‍य नाही. तरीही निरनिराळ्या माहिती स्रोतांतून मिळणारी माहिती संकलित करून याबाबतचा पट मांडता येतो. "माता आणि बालआरोग्य - २'च्या माहितीनुसार आपल्याकडे एकूण मातामृत्यूंपैकी ४० टक्के मृत्यू गरोदरपणाच्या काळात होतात; १६ टक्के प्रसूतीच्या वेळी आणि ३४ टक्के प्रसूतीनंतरच्या ४२ दिवसांत. याखेरीज १० टक्के मृत्यू हे असुरक्षित गर्भपातामुळे होताना दिसतात. अवघड गरोदरपण किंवा प्रसूती, गर्भाशयाबाहेर होणारी गर्भधारणा, उच्च रक्तदाब आणि त्याच्या अनुषंगाने होणारे आजार, प्रसूतीच्या वेळेस अथवा प्रसूतीनंतर होणारा रक्तस्राव, कुठल्याही प्रकारचा जंतुसंसर्ग आणि त्याचे होणारे दुष्परिणाम, याखेरीज मधुमेह, ऍनिमिया, मलेरिया, हृदयरोग आदी कारणांमुळे मातामृत्यू होतात. मातामृत्यूची वेळ आणि कारणे पाहता काही गोष्टी सहजपणे लक्षात येतात.
    समाजातील सर्व स्तरांतील गर्भवती स्त्रियांपर्यंत प्रसूतिपूर्व सेवा पोचल्या पाहिजेत. गरोदर स्त्रीला धनुर्वाताची तीन इंजेक्‍शने दिली, पहिल्या तिमाहीत पहिली प्रसूतिपूर्व तपासणी झाली, नंतर किमान तीन तपासण्या झाल्या आणि तिने लोहाच्या किमान शंभर गोळ्या घेतल्या, तर तिला पूर्ण प्रसूतिपूर्व सेवा मिळाली, असे मानतात. अशी प्रसूतिपूर्व सेवा मिळाल्यास गर्भवती स्त्रीचे सर्व आजार, प्रसूतीच्या वेळी येणाऱ्या संभाव्य अडचणी; तसेच तिचा "ऍनिमिया' या सर्वांचा आधीच विचार होऊ शकेल आणि या साऱ्यांतून यशस्वीपणे बाहेर पडण्यासाठी योग्य मार्गही मिळेल. त्यामुळे गरोदरपणात होणाऱ्या मृत्यूंना आळा घालता येईल. "बाळंतपण ही नैसर्गिक प्रक्रिया आहे. त्यामुळे कोणत्याही प्रसूतिपूर्व तपासण्यांची; तसेच दवाखान्यात प्रसूत होण्याची जरुरी नाही,' असा समज असणारा खूप मोठा गट अजूनही आपल्या देशात आहे. ज्यांचे बाळंतपण घरीच झाले आहे, अशा तीन चतुर्थांशाहून अधिक स्त्रियांनी हे मत तिसऱ्या "राष्ट्रीय कुटुंब आरोग्य सर्वेक्षणा'त व्यक्त केलेले आहे. त्यांचा हा समज खोडून काढला पाहिजे. घरीच बाळंतपण करण्याचा आग्रह असेल, तर अशा स्त्रियांसाठी आरोग्य सेवेमार्फत एक सुरक्षित प्रसूती संच पुरविण्यात येतो. त्यात स्वच्छ आणि निर्जंतुक सामग्री असते. त्यामुळे ही सामग्री वापरून केल्या गेलेल्या बाळंतपणात जंतुसंसर्ग होण्याची शक्‍यता कमी होते; तसेच प्रसूतीनंतर होणाऱ्या त्रासापासून स्त्रीची सुटका होऊ शकते. अशा प्रकारे मातामृत्यू कमी करता येतील.
    प्रसूतीनंतर स्त्रीची तपासणी आणि विचारपूस केल्यामुळे स्त्रीकडे त्या काळात केवळ दुर्लक्ष झाल्यामुळे होणारे मातामृत्यू कमी होऊ शकतात. प्रसूतीनंतर होणाऱ्या मातामृत्यूंचे प्रमाणही जास्त असल्याने त्याकडे आणखी लक्ष पुरविण्याची गरज आहे. भारतात गर्भपात कायदेसंमत असला, तरी अजूनही पुष्कळ स्त्रिया असुरक्षित गर्भपाताचा मार्ग अनुसरतात. गर्भपात चुकीच्या मार्गाने केल्यास त्याचा परिणाम स्त्रीच्या आरोग्यावर होतो. गर्भपाताच्या सुविधांचे जाळे सर्वदूर पसरले, तर त्यामुळे होणारे मृत्यू टाळण्यात यश येईल. या सर्व बाबी खेड्यापाड्यांतील गरीब, अशिक्षित स्त्रियांपर्यंत पोचणे महत्त्वाचे आहे, कारण याच स्त्रिया आरोग्याच्या सेवा-सुविधांपासून वंचित आहेत. अधिक गरोदरपणांचा धोका स्त्रीला होणाऱ्या मुलांची संख्याही महत्त्वाची आहे. अधिक मुले म्हणजे अधिक गरोदरपण आणि अधिक गरोदरपण म्हणजे मातामृत्यूचा अधिक धोका. म्हणजेच होणाऱ्या मुलांची संख्या कमी झाली, तर मातामृत्यूही कमी होतील. कुटुंबाचा आकार कमी होण्यासाठी आपण गेली ६० वर्षे झगडत आहोत. आणखी मुले नको असलेली; परंतु कुटुंबनियोजनासाठी कुठलीही पद्धत न वापरणारी जोडपी आपल्याकडे पुष्कळ आहेत. याचा अर्थ योग्य आणि मानवेल अशी कुटुंबनियोजन पद्धती त्यांच्यापर्यंत पोचत नाही. ही उणीव भरून निघायला हवी.
    भारतीय स्त्रियांमधील "ऍनिमिया'चे प्रमाण ५० टक्के आहे. हेच प्रमाण गर्भवती स्त्रियांत ६० टक्के आहे. मुळातच स्त्रियांमध्ये रक्ताची कमतरता असल्याने प्रसूतीच्या काळातील गुंतागुंत वाढते. शास्त्रीयदृष्ट्या २१ ते ३४ वर्षे हा प्रसूतीसाठी योग्य वयोगट आहे. म्हणजे वीस वर्षांच्या आतील आणि ३५ वर्षांच्या नंतर होणारे जन्म टाळले पाहिजेत. तसे झाल्यास मातामृत्यूचा धोका कमी होईल. वीस वर्षांच्या आत जन्म नको म्हणजे लग्नाचे वय अधिक हवे आणि ३५ वर्षांच्यावर जन्म नको म्हणजे कुटुंबाचा आकार लहान हवा. शिवाय स्त्रियांचे कुटुंबातील स्थान, निर्णय प्रक्रियेतील सहभाग, आरोग्य सेवांची उपलब्धता आणि त्यांचा वापर, याही गोष्टी महत्त्वाच्या आहेत. विविध राज्यांतील आरोग्याची; तसेच मातामृत्यूंची स्थिती निरनिराळी आहे. याचे कारण विविध राज्ये विकासाच्या विविध टप्प्यांवर आहेत. मातामृत्यूंच्या स्थितीप्रमाणे पहिली तीन राज्ये आहेत- केरळ, तमिळनाडू आणि महाराष्ट्र; तर शेवटची तीन आहेत राजस्थान, आसाम आणि उत्तर प्रदेश. नमुना सर्वेक्षण पद्धतीनुसार भारताच्या मातामृत्यूसंदर्भातील वरील सर्वच घटक खरे तर परस्परावलंबी आहेत. त्यामुळे यातील कुठल्याही घटकात सुधारणेला सुरवात झाली, की त्याचा परिणाम इतर घटकांतही परावर्तित होईल. त्यानंतर मातामृत्यूचा दर वेगाने खाली येऊन स्थिरावेल.
    -डॉ. अंजली राडकर (लेखिका पुणे विद्यापीठात प्राध्यापक आहेत.)

    मधुमेही रुग्णांना दिलासा

    मधुमेही रुग्णांना दिलासा
    सकाळ वृत्तसेवा
    Monday, June 22nd, 2009 AT 5:06 PM
    मुंबई - लठ्ठपणा आणि रक्‍तदाब कमी असणाऱ्या मधुमेही रुग्णांना (टाइप टू) उपयुक्‍त असणाऱ्या 'जीएलपी १' किंवा 'बाएटा' या औषधाला अमेरिकन डायबेटिस असोसिएशन आणि युरोपियन असोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ डायबेटिस या संस्थांनी संयुक्तरीत्या मान्यता दिली आहे. मधुमेहावर अतिशय गुणकारी असणारे हे औषध जास्तीतजास्त भारतीय रुग्णांपर्यंत पोहोचवण्याच्या दृष्टीने विशेष प्रयत्नही केले जात आहेत.
    भारतात ४० दशलक्ष एवढे मधुमेहाचे रुग्ण आहेत. त्यापैकी ९५ टक्‍के रुग्णांना "टाइप टू' प्रकारचा मधुमेह आहे. लठ्ठपणामुळे पोटात अतिरिक्‍त ऊर्जा साठवली जाते. त्यामुळे चयापचय क्रिया तसेच इन्शुलिनच्या वापरावर त्यामुळे बंधने येतात. अशा वेळी बाएटासारखी औषधे परिणामकारक ठरतात. या औषधामुळे सर्वसाधारणपणे ३० आठवड्यांत पाच पौंडांपर्यंत वजन कमी होऊन रक्‍तातील साखरेवर नियंत्रण राखले जाते, असे सिद्ध झाले आहे.
    मधुमेहावर तोंडावाटे तसेच इन्जेक्‍शनद्वारे घेण्याची बरीच औषधे आहेत. या औषधांची मात्रा घेतल्यानंतरही "टाइप टू' रुग्णांच्या रक्‍तातील साखरेवर नियंत्रण मिळवणे शक्‍य होतेच असे नाही. बाएटा इन्जेक्‍शनने मात्र शंभर टक्‍के परिणाम साधता येतो. ही औषधे इतर औषधांसोबत किंवा काही रुग्णांमध्ये इन्शुलीनसोबतही दिली जातात. भारतीय रुग्णांमध्येही आता या औषधांचा वापर वाढत आहे, असे रहेजा रुग्णालयातील मधुमेहतज्ज्ञ डॉ. प्रदीप तळवलकर यांनी सांगितले.
    आतड्यांमध्ये नैसर्गिकरीत्या निर्माण होणाऱ्या हार्मोन्सप्रमाणे या औषधांचे कार्य चालते व शरीराला स्वतःचे इन्शुलिन तयार करण्यास मदत होते. हायपोग्लायकेमिया होण्याचा धोका यामुळे खूपच कमी असल्याची माहिती इंडिया डायबेटिस रिसर्च फाऊंडेशनचे अध्यक्ष डॉ. ए. रामचंद्रन यांनी दिली.

    आरोग्यदायी जीवनशैलीचा अंगीकार करा - डॉ. हुबेकर

    आरोग्यदायी जीवनशैलीचा अंगीकार करा - डॉ. हुबेकर
    सकाळ वृत्तसेवा
    Monday, April 06th, 2009 AT 10:04 PM
    भंडारा - आज विज्ञान व तंत्रज्ञानामुळे असाध्य रोगांवर रामबाण औषधींचा शोध लागलेला आहे. परंतु, मनुष्याच्या शारीरिक हालचाली कमी झाल्याने व व्यावसायिक स्पर्धेमुळे प्रत्येकाच्या आयुष्यात ताणतणाव वाढलेले आहेत. यामुळे उच्च रक्तदाब, निद्रानाश, मधुमेह, हृदयरोग, व्यसनाधीनता वाढली आहे. त्यामुळे जागतिक आरोग्य दिनी (ता. सात) प्रत्येकाने निरोगी राहण्यासाठी आजपासूनच आरोग्यदायी जीवनशैलीचा अंगीकार करावा, असे आवाहन वैद्यकीय अधिकारी सुवर्णा हुबेकर यांनी केले आहे.
    आरोग्य समस्या वेळोवेळी ओळखून त्या सोडविण्यासाठी लक्ष केंद्रित करणे, हा जागतिक आरोग्य दिनाचा उद्देश आहे. जागतिक आरोग्य संघटनेचे मुख्यालय जिनिव्हा येथे आहे. 1946 ला रेने सॅड यांच्या अध्यक्षतेखाली 51 राष्ट्रांच्या आंतरराष्ट्रीय समितीने न्यूयॉर्क येथे संघटनेच्या प्रारूपास मान्यता दिली. ही घटना सात एप्रिल 1948 पासून अमलात आणली म्हणून तेव्हापासून सात एप्रिलला वर्धापनदिनानिमित्ताने जागतिक आरोग्य दिन साजरा केला जातो.
    आजवर जागतिक आरोग्य संघटनेने लसीकरण, बालकाचे आरोग्य, कर्करोग, मधुमेह, सकस आहार, हिवताप, अपघात, मानसिक आरोग्य, रक्तदाब, धूम्रपान विरोधी जनजागृती पर्यावरण, वृद्ध व्यक्तीचे आरोग्य, रक्तदान या विषयावर लक्ष केंद्रित केलेले आहे. जागतिक आरोग्य संघटनेच्या व्याख्येनुसार जो व्यक्ती शारीरिक, मानसिक, भौतिकरीत्या तंदुरुस्त आहे तो खरा निरोगी. त्यामुळे प्रत्येकाने मानव समाजावरील आजाराचे आक्रमण थोपविण्यासाठी सक्रिय व्हावे, असेही डॉ. हुबेकर यांनी आवाहन केले.

    लहान मुलेही मधुमेहाच्या विळख्यात

    लहान मुलेही मधुमेहाच्या विळख्यात
    सकाळ वृत्तसेवा
    Thursday, January 29th, 2009 AT 7:01 PM


    (संग्रहित छायाचित्र)

    मुंबई - चटपटीत जीवनशैलीला बळी पडल्याने भारतवासीय मधुमेहाच्या विळख्यात सापडले असून चार ते आठ वयोगटातील मुलेही त्यातून सुटलेली नाहीत. प्रामुख्याने टाईप 1 प्रकारच्या मधुमेहाने या मुलांना ग्रासले असून, रक्‍तातील साखरेचे प्रमाण आणि कालेस्टेरोल यांचे वाढते प्रमाण, उच्च रक्‍तदाब यांचा सामना या मुलांना करावा करावा लागत आहे.
    इन्सुलीनची निर्मिती करणाऱ्या पेशी कमी झाल्याने किंवा त्यांच्या कार्यात अडथळा निर्माण झाल्याने टाईप 1 मधुमेह बळावतो. आनुवंशिकता आणि बदललेली जीवनशैली ही प्रमुख कारणे त्यामागे आहेत. डब्यातील भाजी-पोळी, डाळ-भात यांची जागा आता फास्टफूडने घेतली आहे. कॅडबरी चॉकलेटपासून चटपटीत खाद्यपदार्थांवर ताव मारणाऱ्या या निरागस मुलांना या पदार्थांमुळे आपण मधुमेहाला बळी पडतोय, याची कल्पनाही नसल्याचे जागतिक आरोग्य संघटनेने केलेल्या एका पाहणीत दिसून आले आहे. खाण्यापिण्याच्या योग्य सवयी आणि वेळीच योग्य औषधोपचार यांनी मधुमेह आटोक्‍यात आणता येतो.
    मुलांमधील मधुमेहाची लक्षणे
    जास्त आणि वारंवार भूक लागणे, वजन वाढणे त्यातून स्थूलपणा येणे, लवकर थकवा जाणवणे आणि वारंवार लघवीला जावे लागणे, डोकेदुखी आणि चिडचिड, वैताग यांसारखे वर्तनातील बदल.
    उपाय
    व्यायाम हा मधुमेहावर रामबाण उपाय आहे. मॉर्निंग वॉक याशिवाय प्राणायाम आणि काही योगासने यांचा चांगला उपयोग होतो. खाणेपिणे योग्य ठेवल्यास त्यावर सहजपणे नियंत्रण ठेवता येते.

    मोतीबिंदू म्हणजे काय?

    उपचार पद्धतीत अत्याधुनिकतेची कास
    सकाळ वृत्तसेवा
    Friday, April 17th, 2009 AT 10:04 PM
    जळगाव - डोळ्याला मनाचा आरसा म्हटले जाते. राग, लोभ, मद, मत्सर सारे काही या डोळ्यांतूनच व्यक्त होत असते. आपल्या या डोळ्यांमुळेच आपण सुंदर सृष्टी पाहू शकतो. मानवी शरीरातील डोळा हे अत्यंत महत्त्वाचे इंद्रिय असून, त्याची योग्य काळजी घेतली जात नाही. असंतुलित आहार आणि सवयींमुळे अलीकडे डोळ्यांचे आजार वाढीस लागले आहेत.
    डोळ्यांच्या आजारात वाढ होऊ लागल्याने अकाली म्हणजे मोतीबिंदूसारखे आजार वयाच्या पन्नाशीतच जडू लागले आहेत. हा आजार पूर्वी सत्तरी ओलांडल्यानंतर होत असे. विचित्र सवयी आणि व्यसनाधीनता वाढीस लागल्याने डोळ्यांचे अनेक आजार बळावत आहेत. आहारात पालेभाज्या व फळांचा गरजेपुरताही समावेश होत नाही. परिणामी 30 ते 35 या वयोगटानंतर प्रत्येकालाच डोळ्यांचे आजार जडतात. ते जडू नयेत आपले डोळे कायम निरोगी राहावेत, यासाठी डोळ्यांची आपणच काळजी घ्यायला हवी, असे नेत्रतज्ज्ञांचे मत आहे.
    वातावरण बदलाचा परिणाम
    डोळे अतिशय नाजूक असतात व त्यावर वातावरणाच्या बदलांचा परिणाम लगेच होतो. त्याबद्दल जागरूक राहणे गरजेचे आहे. ऋतुचक्र बदलत असताना थंडीकडून उन्हाळ्याकडे जाताना हवामानातील बदलांमुळे काही आजार होतात. त्यात ऍलर्जी, कोरडेपणासारख्या तक्रारी जास्त आढळतात. आता संगणकावर काम करणारे तसेच "कॉन्टॅक्‍ट लेन्स' वापरणारे, उन्हामध्ये सतत काम करणारे लोक लक्ष्य बनू शकतात. त्यामुळे सावधानता बाळगणे हा नेहमीचा योग्य उपाय आहे.
    खानदेशात सुविधा
    खानदेशातील जळगाव, धुळे व नंदुरबारसारख्या शहरांत एक ते दोन दशकांपूर्वी तज्ज्ञ डॉक्‍टरांची संख्या हाताच्या बोटावर मोजण्याइतकीच होती. त्यामुळे कुठल्याही गंभीर आजारावर उपचारांसाठी रुग्णांना पुणे, मुंबई, नाशिकसारख्या मोठ्या शहरांत धाव घ्यावी लागत असे. त्यासाठी रुग्णांना मानसिक, शारीरिक त्रासाबरोबरच आर्थिक झळही सोसावी लागत होती. या तिन्ही शहरांचे भौगोलिकदृष्ट्या महत्त्वाचे स्थान लक्षात घेता हळूहळू तेथे अत्याधुनिक वैद्यकीय सेवा उपलब्ध होऊ लागली. त्यामुळे रुग्णांची मोठी सोय होत आहे.
    खानदेशातील नेत्र रुग्णालयांत सध्या संगणकीय नेत्रतपासणीसह फेको सर्जरी, फोल्डेबल लेन्स इम्प्लांट, एन-डी याग लेझर ट्रीटमेंट, फंड्‌स फ्लुरेसिन अँजिओग्राफी, ऑटोमॅटिक पेरिमेट्री, रेटिना लेझर ट्रीटमेंट, डायबेटिस रुग्णांसाठी लेझर उपचार- रेटिना सर्जरी, ग्लुकोमा सर्जरी, ऑक्‍युलर ट्रॉमा सर्जरी आदी उपचार केले जातात. तसेच लेसर रूम, पेरिमेट्री रूम आदी सुविधाही उपलब्ध आहेत. अलीकडेच या तिन्ही शहरांतील काही नेत्रतज्ज्ञांकडे अत्याधुनिक ओझील फेको शस्त्रक्रिया केल्या जाऊ लागल्या आहेत. पारंपरिक फेको शस्त्रक्रियेतील काही त्रुटी भरून काढण्यासाठी या तंत्रज्ञानात बरेच संशोधन झाले आहे. ओझील तंत्रज्ञानात सुरक्षितता, परिणामकारकता व शस्त्रक्रियेचा वेग यांचा सुंदर मिलाफ साधला जातो. यामुळे स्थानिक स्तरावरच सर्व सुविधा उपलब्ध झाल्याने रुग्णांना पुणे- मुंबईसारख्या मोठ्या शहरांत जाण्याची गरज राहिलेली नाही.
    मधुमेह, रक्तदाबाचा परिणाम
    मधुमेह, रक्तदाब या आजारांमुळे डोळ्यांवरही विपरीत परिणाम होतो, याची अनेकांना माहितीच नाही. त्यामुळे अशा रुग्णांनी वर्षभरात एकदा डोळ्यांची तपासणी करायलाच हवी. अशा तपासणीत डोळ्यांमध्ये काही दोष आढळल्यास त्वरित उपचार करणे गरजेचे आहे. अन्यथा डोळे कायमचे गमावण्याची भीती असते. तसेच लहान मुलांना खेळताना, तसेच शाळेत विविध साधने हाताळताना डोळ्यांना होणारी इजा, या विषयीही जनजागृतीची गरज आहे.
    इतर औषधांचा परिणाम
    आजकाल रोजच्या जीवनात हे लक्षात आलेय, की वेगवेगळ्या कारणांसाठी आपण अनेक औषधे घेतो आणि त्या औषधांचा आपल्या डोळ्यांवर कळत-नकळत परिणाम होत असतो. यावर आता संशोधन चालू आहे. कोणतीही स्टेरॉइड्‌स जास्त दिवस घेणे गरजेचे असेल, तर त्या उपचारानंतर निदान एकदा तरी डोळ्यांच्या डॉक्‍टरांना दाखवून घ्यायला हवे. डॉक्‍टरांना तुम्ही घेत असलेली औषधांची यादी दाखविणे तितकेच महत्त्वाचे आहे.
    उन्हाळ्यात काळजी हवीच
    वसंत ऋतूमध्ये आंबा-डाळ, कैरीचे पन्हे पिताना रोज भरपूर पाणी पिणे, उन्हात जाताना डोक्‍यावर टोपी घालणे, डोळ्यांवर गॉगल लावणे अत्यावश्‍यक आहे. घरात लहान मुले असतील व ती सतत डोळ्यांना खाज येते, पाणी येते, डोळे लाल होतात, अशा तक्रारी करत असतील, तर त्यांना त्वरित जवळच्या डोळ्यांच्या डॉक्‍टरांना दाखवून घ्या. त्यामुळेच उन्हाळ्याची सुटी आपण चांगली घालवू शकतो. आपला आहार-विहार आणि विचार या सर्वांनीच आपण आपली प्रतिकारशक्ती वाढवू या आणि उन्हाळ्यापासून आपल्या डोळ्यांचे संरक्षण करू या.
    मासे खा, मोतीबिंदू टाळा
    एका संशोधनानुसार दीर्घायुष्य मिळण्याबरोबरच नेत्रविकार टाळण्यासाठीही मासे महत्त्वाचे आहेत. विशेषतः मोतीबिंदू टाळण्यासाठी, रेटिनाची क्षमता वाढवण्यासाठी मत्स्याहार चांगला असल्याचे तज्ज्ञांचे मत आहे. आठवड्यातून केवळ एकदाच मत्स्याहार करणाऱ्या व्यक्तींमध्ये दृष्टी जाण्याची किंवा रेटिनावर पडदा येण्याची शक्‍यता 40 टक्‍क्‍यांनी कमी असते, तर धूम्रपान करणाऱ्या व्यक्तींमध्ये ही शक्‍यता दुप्पट असते. शरीरातील रेटिनाचे प्रमाण जसे कमी होत येईल तशी मोतीबिंदू होण्याची शक्‍यता वाढते. त्यामुळेच जास्तीत जास्त मासे खाऊन मोतीबिंदूला दूर ठेवणे, हेच जास्त योग्य ठरते.
    मोतीबिंदू म्हणजे काय?
    डोळ्यातील नैसर्गिक भिंगास आलेला गढूळपणा म्हणजेच मोतीबिंदू. सामान्य डोळ्यात प्रकाशकिरण पारदर्शक भिंगाद्वारे मागील पडद्यावर केंद्रित होतात. उत्तम दृष्टीकरिता नैसर्गिक भिंग (लेन्स) पूर्णतः पारदर्शक असणे आवश्‍यक असते. जेव्हा या लेन्सची पारदर्शकता मोतीबिंदू झाल्याने कमी होते तेव्हा रुग्णास अंधूक दिसू लागते. मोतीबिंदू अर्थात लेन्सला आलेला गढूळपणा काळानुसार वाढतच जातो व रुग्णास अधिकाधिक अस्पष्ट दिसू लागते. मात्र आता अत्याधुनिक तंत्रज्ञानामुळे मोतीबिंदूची शस्त्रक्रिया खूपच सुकर झाली आहे.