मधुमेह में हृदय रोग-एक चेतावनी |
मधुमेह के रोगियों को:
मधुमेह रोगियों में हार्ट अटैक के लक्षण:
मधुमेह आतंक नहीं-मुकाबला संभव:
मधुमेह: विशेष जांच पड़ताल:
डा0 सुधीर कुमार मधुमेह एवं हृदय रोग विशेषज्ञ |
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Wednesday, August 17, 2016
मधुमेह में हृदय रोग-एक चेतावनी
मधुमेह एवं नेत्र
Diabetes education in Indian languagaes भारतीय भाषा में मधुमेह शिक्षाభారతీయ భాషలో మదుమెహ విద్య
मधुमेह एवं नेत्र |
डायबिटिज में आंख की बीमारियां अन्य लोगों की अपेक्षा दो गुना अधिक होती है और डायबिटिज रेटिनोपैथी के अलावा मोतियाबिन्द और समलबाई के होने की सम्भावना सामान्य से अधिक होती है। डायबिटिज आज भारतवर्ष में पूर्ण अन्धता के छः मुख्य कारणों में से एक बन गई है। डायबिटिज के मरीजों में पूर्ण अन्धता की संभावना सामान्य लोगों से 25 गुना अधिक होती है। डायबिटिज दो तरह की होती है। टाइप-1 और टाईप-2। किसी भी तरह के डायबिटिज में होने वाली प्रमुख बीमारी डायबिटिज रेटिनोपैथी होती है और यह बीमारी डायबिटिज होने के 25 वर्ष के अन्दर 70 से 80% रोगियों को हो जाती है और चूँकि इसका होना इस बात पर निर्भर करता है कि डायबिटिज कितने लम्बे समय से है और इस बात पर कि डायबिटिज कन्ट्रोल है भी कि नहीं पर यह सत्य है कि डायबिटिज के कन्ट्रोल में रहने पर रेटिनोपैथी धीरे-धीरे पनपती है और इसकी भयावहता भी कम हो जाती है अन्यथा बहुत ही तेजी से बढ़कर रेटिनोपैथी अन्तिम चरण में पहुँच जाती है और रोगी पूर्ण अन्धता का शिकार हो जाता है। टाईप-1 डायबिटिज के मरीजों में रोग जल्दी एवं तेजी से पनपता है अतः उन्हें अत्यधिक सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है। अगर डायबिटिज रेटिनापैथी के साथ-साथ मरीज को उच्च-रक्त चाप, एनिमिया एवं गूर्दे की परेशानी होती है तो बीमारी के लक्षण तेजी से बढ़ते है और भयावह हो सकते हैं अतः इन अन्य रोगों का इलाज अत्यन्त आवश्यक है। डायबिटिज रेटिनापैथी में आँख के पर्दे अर्थात् रेटिना को रक्त पहुँचाने वाली सूक्ष्म नलिकाओं की दीवारों में सूजन आ जाता है, जिससे वह सकरी हो जाती हैं तथा रक्त कण आपस में चिपककर इन सकरी नलिकाओं को बन्द कर देती हैं, जिससे अवरूद्ध नलिकायें फूल जाती है और फूल-फूल कर फट जाती हैं और रेटिना पर खून के धब्बे बिखर जाते हैं। तदोपरान्त रेटिना को यथोचित रक्त प्रवाह न मिलने के कारण आवश्यक पदार्थों एवं O2 की कमी आ जाती है, जिसकी वजह से सूजन आ जाती है।
रेटिना के प्रमुख क्षेत्र जहां से दिखाई देती है, जिसे मैकुला कहते हैं और डायबेटिक रेटिनोपैथी में नजर के गिर जाने के तीन मुख्य कारणों में से एक है। मैकुला पर सूजन आ जाना बहुत लम्बे समय तक रेटिना के खाद्य पदार्थों और आक्सीजन की कमी के कारण इसकी आपूर्ति हेतु नई परन्तु अत्यन्त कमजोर खून की नलियां कई स्थानों पर पनपना शुरू कर देती हैं, जिसे वैसकुलराइजेशन कहते हैं। इन नलियों के थोड़े से जोर पड़ जाने से आंख के गोलक के अन्दर भीषण रक्तस्राव होने लगता है इसे विट्रीयस-हेमरेज कहते हैं और यह डायबेटिक रेटिनापैथी में नेत्र ज्योति के कम होने का दूसरा प्रमुख कारण है। अन्ततः आंख के गोलक में भरा रक्त सूखने लगता है और झिल्लियों में परिवर्तित होने लगता है और इन झिल्लियों के द्वारा रेटिना पर पड़ने वाले खिंचाव से पर्दा उखड़ जाता है, जिसे ट्रेक्सनल रेटिनल डिटैचमेन्ट कहते हैं यह नजर गिरने का तीसरा प्रमुख कारण होता है। चूँकि डायबेटिक रेटिनापैथी में नेत्र ज्योति अधिकतर बीमारी के अन्तिम एवं काफी गम्भीर होने पर गिरती है और तब तक इलाज के लिए काफी देर हो चुकी होती है। अतः प्रत्येक मधुमेह रोगी को रेटिना की जाँच मधुमेह का पता लगते ही कराना चाहिए और तदोपरान्त किसी लक्षण के न रहने पर भी वर्ष में एक से दो बार आंख की पुतली को फैलाकर रेटिना विशेषज्ञ द्वारा जांच कराते रहना चाहिए। डायबेटिक रेटिनापैथी के इलाज में समय रहते बीमारी की पहचान एवं रोकथाम का प्रमुख स्थान है।
इसके उपचार हेतु रेटिना की फ्लोरसिन एन्जियोग्राफी (F.F.A.) की जाती है, जो कि आउटडोर जांच है और इसमें एक दवा का इन्जेक्शन लगाकर मशीन द्वारा पर्दे की फोटोग्राफी की जाती है। इस जांच के द्वारा बीमारी की स्टेजिंग की जाती है तथा कहां कितनी सूजन है अथवा कितना लेजर उपचार देना है इसका आंकलन किया जाता है। साथ ही लेजर द्वारा उपचार के बाद की स्थिति का आंकलन भी फ्लोरसिन एन्जियोग्राफी के द्वारा ही किया जाता है।
डायबेटिक रेटिनोपैथी का उपचार प्रमुख रूप से तीन तरह से किया जाता है।
लेजर ट्रीटमेन्ट कराने के पश्चात् पर्दे पर सूजन कम हो जाती है और खून का रिसना बन्द हो जाता है तथा रोशनी में सुधार हो जाता है। कई लोगों में रोशनी हल्की सी कम हो सकती है। परन्तु लेजर ट्रीटमेन्ट के पश्चात् दृष्टि कम से कम उतनी ही बची रहती है और रोगी के दृष्टिहीन होने का खतरा नहीं रह जाता, क्योंकि लेजर द्वारा उपचार के पश्चात् रोग के बढ़ने की प्रक्रिया थम जाती है और सूजन वगैरह खत्म हो जाती है। यह उपचार रेटिना विशेषज्ञ द्वारा 10-15 मिनट में किया जाता है और मरीज तुरन्त घर जा सकता है।
बीमारी के अन्तिम चरण में जब गोलक में रक्त-स्राव व ट्रेक्सनल डिटैचमेन्ट हो जाता है उसके उपचार हेतु एक बड़ी सर्जरी की जाती है जिसे विट्रेक्टामी कहते हैं। इसमें यह जरूरी नहीं है कि पूरी कामयाबी नजर वापस आ जाए (लेकिन इसमें पूरा प्रयास रोशनी बचाने का किया जाता है, जो कि रोशनी को बचाने का आखिरी प्रयास होता है।
मोतियाबिन्द आपरेशन के बाद डायबेटिक रेटिनोपैथी की गम्भीरता अर्थात् पर्दे पर सूजन आदि तेजी से बढ़ने लगती है अतः किसी भी आपरेशन से पहले डायबेटिक रेटिनोपैथी का उपचार अगर संभव हो तो करवा लेना चाहिए अन्यथा आपरेशन के तुरन्त बाद उपचार की आवश्यकता होती है।
डा0 दुर्गेश श्रीवास्तवएम.एस. रामजानकी नेत्रालय, पत्थर कोठी 33, कसया रोड, बेतियाहाता-गोरखपुर मधुमेह व प्रौढ़ावस्था में नेत्र सम्बन्धी जानकारियाँ
40 वर्ष की अवस्था के बाद आंखों में कुछ प्राकृतिक बदलाव आता है तथा कुछ अन्य शारीरिक बीमारियों का प्रभाव बढ़ता है। 40 से 40 वर्ष के बीच नजदीक की रोशनी कम होने लगती है तथा पढ़ने के लिए चश्मा की आवश्यकता पड़ती है। प्रतिवर्ष थोड़ा-थोड़ा बढ़ता रहता है। इसे प्रेस वायोपिया कहते हैं। यह एक प्राकृतिक बदलाव है। इससे परेशान नहीं होना चाहिए। किसी नेत्र विशेषज्ञ से परामर्श करें। वह चश्मे का उचित नम्बर देने के साथ-साथ आंखों की पूरी जांच करेंगे, जिससे प्रारम्भ में कोई तकलीफ नहीं होती है, किन्तु बाद में रोशनी जाने का खतरा पैदा हो सकता है। डायबिटिज बहुत से लोगों में पाया जा रहा है। यह शरीर के सभी हिस्सों को प्रभावित करता है। आंखों में इसके कारण 2 महत्वपूर्ण खतरा पैदा होते हैं। एक तो डायबिटिक रेटिनापैथी तथा दूसरा समलबाई या ग्लूकोमा। समलबाई या काला मोतिया या ग्लूकोमा एक बहुत ही खतरनाक बीमारी है। एडवांस स्टेज आने से पहले तक न दर्द होता है और न ही धुंधलापन आता है अधिकतर मरीजों को बहुत अधिक खराबी के बाद ही दर्द या धुंधलापन आता है और तब दवा व ऑपरेशन के बावजूद ज्यादातर लोग अन्धे हो जाते हैं। इसलिए समलबाई को शुरूआत में जानने के लिए डाक्टर व मरीज दोनों को ही विशेष रूप से सतर्क रहना चाहिए। यदि किसी भी व्यक्ति को लम्बे समय से डायबिटिज, हाइपरटेंशन व आंख की किसी भी बीमारी का इलाज चला हो या आंख में कभी काई चोट, माता-पिता या भाई-बहन में किसी को समलबाई की शिकायत तथा अधिक पावर का चश्मा लगा हो प्लस या माइनस या 40 वर्ष से अधिक उम्र हो तो इन्हें आंखों की जांच अवश्य करानी चाहिए। समलबाई की जांच में आवश्यक हैः-
इन्ट्राआकुलर टेन्शन की जाँच
इन सातों जांचों में सबसे आधुनिक व उपयोगी जांच है जी.डी.एक्स. इसकी विशेषता यह है कि प्रारम्भ में ही समलबाई को जान लेता व समय-समय पर इलाज से हो रहे असर के बारे में पता लगाना।
डायबिटिज अन्धेपन का एक मुख्य कारण है, जिससे होने वाली बीमारी को डायबिटीक रेटिनोपैथी कहते हैं, जिससे शुरू में आंख में हो रहे नुकसान को समझ पाना मरीज के लिए मुश्किल होता है और मरीज को समझ में आने तक 60-70 प्रतिशत तक रोशनी समाप्त हो जाती है। अतः बेहतर यह है कि समय रहते ही इसका इलाज कर इससे बचा जा सके। इसके जांच के लिए आवश्यक है:
आंख के पर्दे का फलोरोसिन एन्जियोग्राफी द्वारा जांच व बचाव के लिए लेजर द्वारा सेंकाई करना। लेजर के बाद से रोशनी बढ़ने की संभावना कम होती है परन्तु और अधिक नुकसान से बचने के लिए इसे करवाना आवश्यक होता है।
मोतियाबिन्द प्रौढ़ावस्था से कम दिखाई देने के कारणों में से सबसे बड़ा कारण है, जिससे की मरीज को कम या धुंधला दिखाई देने लगता है। बहुत देर करने से मोतियाबिन्द कड़ा हो जाता है और आपरेशन करने में परेशानी होती है। साथ ही कभी-कभी देर कर देने के कारण रोशनी समाप्त होने या समलबाई का दर्द होने का खतरा बढ़ जाता है। क्योंकि मोतियाबिन्द का आपरेशन अनिवार्य है इसलिए अधिक समय तक बढ़ने पकने का इन्तजार न करके सही समय पर ऑपरेशन करवाना चाहिए। मोतियाबिन्द आपरेशन की आधुनिक व सुरक्षित तकनीकि है ‘फेको सर्जरी’। ध्यान देने योग्य बातें:
आँखों की देखभालचश्मा हटाने के लिए लेसिक लेजर
लेसिक (LASIK) (Laser Assisted In-Situ Keratomileusis) कार्निया की गोलाई (Radius of Curvature) को कम या ज्यादा कर आँख का पॉवर ठीक करता है जिससे प्रतिबिम्ब आँख के पर्दे पर बनने लगता है और साफ दिखाई देने लगता है। लेसिक बहुत ही आसान व आरामदायक प्रक्रिया है। पहले आँख की जांच की जाती है और निश्चित किया जाता है कि लेसिक के लिए उपयुक्त है कि नहीं। इसके बाद आँख में सफाई व सुन्न करने वाला आई ड्राप डाला जाता है। माइक्रोकेरैटोम से कार्निया की ऊपरी परत (लगभग एक तिहाई) किनारे हटाकर लेसिक लेजर से जितने पावर की कमी होती है उतना पावर बढ़ाया जाता है अन्त में कार्निया के ऊपरी परत को पुनः उसी जगह लगा दिया जाता है इसमें कोई टांका या लेंस नहीं लगाना पड़ता है।
एक डायोप्टर पॉवर ठीक करने में लगभग आठ सेकेण्ड लगता है। अर्थात् 5 डायोप्टर के लिए 40 सेकेण्ड। लेसिक के लिए सभी उपयुक्त पात्र नहीं होते, पूरी तरह से नेत्र चिकित्सक जांच के उपरान्त ही बता पायेंगे, किन्तु इसकी सामान्य शर्ते हैं:-
लेसिक कराने का निर्णय पूरी जानकारी करके वास्तवितकता के धरातल पर करना चाहिए। मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए कि आंख का पॉवर लगभग सामान्य हो जाये जिससे कि चश्मा व अन्य साधनों पर निर्भरता कम हेा जाये। लेसिक कराने के बाद अधिकतर (95% से ज्यादा) लोगों को किसी चश्में की आवश्यकता नहीं पड़ती है, किन्तु कुछ लोगों को (लगभग 5%) जिन्हें बहुत ही एक्यूरेट विजन की आवश्यकता होती है हल्के पॉवर का चश्मा समय-समय पर लगाने की आवश्यकता पड़ सकती है या पुनः लेसिक करा सकते हैं।
जब नेत्र में आने वाल प्रकाश की रिणें रेटिना पर फोकस नहीं होती है तो धुंधला दिखाई देता है, इसे दृष्टि दोष कहते हैं। यदि प्रतिबिम्ब रेटिना के आगे बन रहा है तो इसे मायोपिया या निकट दृष्टि दोष कहते हैं। इसमें माइनस लेंस से साफ दिखाई देता है और यदि प्रतिबिम्ब रेटिना के पीछे बन रहा हो तो इसे हाइपरमेट्रोपिया या दूर दृष्टि दोष कहते हैं। यदि प्रतिबिम्ब का कुछ भाग आगे और कुछ भाग पीछे बन रहा हो तो इसे ऐस्टिगमेटिज्म कहते हैं, हसमें सिलेंडर लेंस से साफ दिखाई देता है। लगभग 40 वर्ष की अवस्था में डेढ़ फिट की दूरी पर साफ नहीं दिखता है और किताब यदि कुछ दूर करके देखें तो साफ हो जाता है। इसे प्रेसबायोपिया कहते हैं। प्रेसबायोपिया लेसिक से ठीक नहीं होता है।
इन सभी अवस्थाओं में पारम्परिक रूप से चश्मा लगाने की सुविधा है लेकिन चश्मा असुविधाजनक व अप्रिय महसूस होता है। विशेषकर शादी, रोजगार या खेलकूद में इसलिए आजकल कांटेक्ट लेंस का प्रयोग बढ़ गया है। कांटेक्ट लेंस सस्ता तो है लेकिन रोज निकालना, लगाना, सफाई व समय-समय पर बदलने के कारण कम ही लोग इसे सुविधाजनक समझते हैं। फिर प्रकृति की खूबसूरती को देखने के लिए चश्मा या कांटेक्ट लेंस पर निर्भरता क्यों यदि लेसिक करा सकते हैं। लेकिन आपरेशन डेट से-
डायबेटिक रेटिनापैथी व रेटिना की अन्य बीमारियों का इलाज
रेटिना या पर्दा नेत्र गोलक के पिछले हिस्से से पतली झिल्ली जैसी संरचना होती है। इसमें कुछ दोष ऐसे भी होते हैं जिनमें कोई तकलीफ नहीं होती है किन्तु बीमारी बढ़ती रहती है। इसलिए आवश्यक है कि मायोपिया डायबीटिज व ब्लड प्रेशर वाले व्यक्ति को कोई तकलीफ हो या न हो नियमित रूप से नेत्र जांच कराते रहें। पर्दे की पूर्ण जांच के लिए आवश्यक है कि पुतली फैलाने की दवा डाली जाए इस दवा के कारण 3 घण्टे या ज्यादा समय के लिए नजदीक में धुंधलापन आता है तथा प्रकाश में चकाचैंध दिखता है फिर स्वतः ही ठीक हो जाता है। पर्दे में छेद होने, फटने (डिटैचमेण्ट) या खून की नली फटने में आवश्यक नहीं है कि रोशनी में कमी हेा जब दोष पर्दे के मध्य में आस-पास होता है तभी मरीज को समझ में आता है। पर्दे के दोष को ज्ञात करने के लिए कभी-कभी एफ.एफ.ए. (फण्डस फ्लोरेसिन एन्जियोग्राफी) करना पड़ता है। इसमें नस में डाई इंजैक्ट करने के बाद बहुत से फोटोग्राफ लिये जाते हैं। इसके बाद आवश्यकता पड़ने पर लेजर ट्रीटमेण्ट दिया जाता है। ज्यादातर मरीजों में पर्दे पर लेजर ट्रीटमेण्ट से दोष को रोकने में सहयोग मिलता है। पर्दे जब अपनी जगह या जड़ से उखड़ जाता है तो उसका न्यूट्रिशन बाधित होने के कारण सूखने लगता है। ऐसी स्थिति में उसे पुनः अपने स्थान से जल्दी से लगा देने से ठीक रोशनी आ सकती है। देरे होने पर सूखने व सिकुड़ने के कारण ऑपरेशन के बाद ठीक से अटैच होने के बावजूद अच्छा परिणाम नहीं आता।
समलबाई का इलाज
आँख के आन्तरिक दबाव को (टेंशन) बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण नस सूखने लगता है तथा दृष्टि क्षेत्रफल (चौड़ाई में विस्तार) कम होने लगता है। सामने, दूरी और नजदीक में अच्छा दिखाई देता है, किन्तु बगल में चौड़ाई कम होने लगती है जिसका अनुमान स्वयं कर पाना बहुत मुश्किल है। लगभग 95 प्रतिशत मरीजों को कोई दर्द नहीं होता है इसी कारण ज्यादातर व्यक्तियों में समलबाई इतनी बढ़ जाती है कि लगभग 90 प्रतिशत रोशनी समाप्त होने के बाद ही मरीज को स्वतः अनुभव होता है कि कुछ परेशानी है। समलबाई में जो रोशनी चली जाती है वह दवा या आपरेशन से वापस नहीं आती। इसलिए यह आवश्यक है कि 40 वर्ष के अवस्था के बाद प्रति वर्ष नियमित रूप से आँखों की जांच कराते रहें और आवश्यकतानुसार चिकित्सक से परामर्श से दृष्टि क्षेत्रफल (फील्ड टेस्ट) की जांच कराते रहें। यदि माता-पिता या भाई-बहन को समलबाई हो तो और भी सतर्क रहने की आवश्यकता है। चिकित्सक के निर्देशानुसार बिना विलम्ब किये दवा या ऑपरेशन की सहायता से बची हुई रोशनी के लिए जीवन भरी प्रयासरत रहना पड़ेगा, समलबाई में रोशनी बढ़ने की उम्मीद न रखें।
कांटेक्ट लेंस फ़िटिंग
अधिकांश व्यक्तियों में कांटेक्ट लेंस चश्मा के तुलना में अच्छी रोशनी देता है। इसके साथ हाथ साफ करके लगाना या उतारना चाहिए, बताये गये फ्ल्यूड में ही लेंस रखना चाहिए। चश्मा पहन कर नहीं सोना चाहिए। जब भी कभी आँख में लाली, पानी या दर्द हो तो कांटेक्ट लेंस उतार देना चाहिए और चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए।
मोतियाबिन्द के लिए फेको सर्जरी
प्राकृतिक लेंस जब धुंधला हो जाता है तो मोतियाबिन्द कहते हैं। मोतियाबिन्द आपरेशन की सबसे अच्छी व नई तकनीक है: फेको सर्जरी और मल्टीफोकल फोल्डेबल इम्प्लाण्टेशन। जब मोतियाबिन्द के कारण अपने कामों में परेशानी शुरू हो जाये तो शुरू में ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए। बहुत देर करने से मोतियाबिन्द कड़ा हो जाता है, और ऑपरेशन करने में परेशानी होती है। साथ ही कभी-कभी देर के कारण रोशनी समाप्त होने या समलबाई का दर्द होने का खतरा बढ़ जाता है। क्योंकि मोतियाबिन्द का निकालना अनिवार्य है, और पहले निकलना मरीज और डॉक्टर दोनों के लिए आरामदायक है इसलिए चश्में के बावजूद कम रोशनी की परेशानी झेलते हुए अधिक समय तक बढ़ने, पकने या आँख खराब होने का मौका नहीं देना चाहिए। किसी मौसम में ऑपरेशन कराया जा सकता है।
नयी विधि में मरीज के लिए बहुत आराम हो गया है। इसमें बेहोशी या सुन्न कराने की सूई (इन्जेक्शन) की जरूरत नहीं पड़ती है। ऑपरेशन के समय मरीज के लिए बात करने या इधर- उधर आँख के घुमाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसमें दस से बीस मिनट लगता है। ऑपरेशन के बाद कोई टांका या बैन्डेज (पट्टी नहीं लगता है और आपरेटेड आँख से देखते हुए घर जा सकते हैं। ऑफिस वर्क अगले दिन से किन्तु फिल्ड या लेबर वर्क दो सप्ताह बाद कर सकते हैं।
फेको सर्जरी से मशीन की एक पतली निडिल आँख में जाती है और मोतियाबिन्द को तोड़कर व घोलकर साफ कर देती है। इसमें निडिल जोने का छोटा सा सुराख करना पड़ता है इसलिए इसमें आराम व सुरक्षा बढ़ जाती है। टाँका नहीं लगाना पड़ता है। इसलिए टांका चुभने व निकालने की समस्या नहीं रहती है।
प्राकृतिक धुंधले लेन्स को निकालने के बाद कृत्रिम लेन्स (उपर्युक्त पॉवर अल्ट्रा साउण्ड बायोमेट्री की सहायता से ज्ञात करते हैं) लगाना आवश्यक है। कृत्रिम लेन्स कई प्रकार के होते हैं। पहला नान फेको (हार्ड लेन्स) दूसरा फेको (हार्ड लेन्स) तीसरा फेको साफ्ट (फोल्डेबल) लेन्स अच्छा रहता है, क्योंकि इसे आंख में डालने के लिए बड़े चीरे की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि लेन्स मुड़कर (फोल्ड होकर) अन्दर जाता है, और वहां खुलकर (अनफोल्ड होकर) नार्मल साइज में आ जाता है, इन सभी लेन्सों में एक ही दूरी का पॉवर होता है। इस कमी को पूरा करने के लिए और अन्य दूरियाँ पर बिल्कुल स्पष्ट देखने के लिए हल्के पॉवर का चश्मा लगाना होता है।
मल्टी फोकल फोल्डेबल लेन्स में 5 अलग-अलग दूरियों के लिए 5 पॉवर होते हैं। दो पास के लिए, दो दूर के लिए तथा एक बीच के लिए। इस तरह सभी दूरियां स्पष्ट नहीं होती हैं। किन्तु एक पॉवर वाले लेन्स की तुलना में पांच पावर वाले लेंस से काफी काम आसानी से हो जाता है। कुछ लोगों को हल्के पॉवर का चश्मा भी लगाना पड़ता है तो भी सिंगल पॉवर लेन्स की तुलना में यह काफी आरामदायक होता है। मल्टी फोकल लेंस में शुरू के तीन-चार माह तक रात में स्वयं ड्राइविंग करना मना होता है।
एकोमोडेटिव लेंस में पॉवर एक ही होता है किन्तु उसके लूप में एकोमोडेशन का गुण होता है जिसके कारण 90 प्रतिशत व्यक्तियों में लगभग 90% काम बिना चश्में के हो जाता है।
ज्यादातर लोगों में पॉवर एक ही होता है, किन्तु कभी-कभी उम्र के कारण या अन्य किसी बीमारी के कारण नस या पर्दा कमजोर हो जाता है तब अच्छे आपरेशन के बावजूद अच्छी रोशनी नहीं आती है। कभी-कभी सभी तैयारियों और प्रयासों के बावजूद लेंस लगाना सम्भव नहीं हो पाता है। कभी-कभी आपरेशन के बाद इन्फेक्शन होने, समलबाई होने, पुतली खराब होने के कारण पुनः अस्पताल में भर्ती होने या ऑपरेशन कराने की आवश्यकता पड़ सकती है।
आधुनिक तकनीक के कारण मोतियाबिन्द ऑपरेशन बहुत आसान व सुरक्षित हो गया है किन्तु फिर भी किसी सर्जरी में दवा के रिएक्शन या अन्य अनहोनी के कारण आँख या जान जाने के खतरे को शत-प्रतिशत टाला नहीं जा सकता। मोतियाबिन्द ऑपरेशन के बाद कभी-कभी एक धुंधली झिल्ली आ जाती है, जिसे लेसर से बिना बेहोशी के साफ करा सकते हैं। लेन्स आँख के अन्दर होता है। इसलिए आँख में पानी का छींटा मारने, मलने, धूल या धुंआ लगने से लेन्स खराब नहीं होता है। लेन्स में कोई सफाई या बदलने की आवश्यकता नहीं होती है। लेन्स पूरे जीवन भर के लिये होता है। अतः यदि डाक्टर का परामर्श हो तो मोतियाबिन्द का इलाज जल्दी (जैसे ही अपने काम में चश्में के बावजूद उस आंख से रोशनी कम महसूस हों) फेको विधि से मल्टीफोकल या सिंगल फोकल फोल्डेबल बिना पके बिना मौसम का इन्तजार किये, बिना इन्जेक्शन, बिना बेहोशी, बिना टांका व बिना बैंडेज के कराना चाहिए।
नेत्र सम्बन्धी जानकारियाँ
डा. अनिल कुमार श्रीवास्तव एम.एस. (नेत्र) राज आई हास्पिटल, गोरखपुर |
बाल मधुमेही- कुछ अनछुए पहलू सामाजिक व मानसिक दृष्टिकोण
बाल मधुमेही- कुछ अनछुए पहलू सामाजिक व मानसिक दृष्टिकोण |
कल रात टी.वी. देखते हुये इसकी आँखें पथरा गई एवं शरीर काँपने लगा। अस्पताल ले जाने के थोड़ी देर बाद ही यह ठीक हो गई। किंतु आज सुबह खून की जाँच में शक्कर बताई है। लेकिन इससे पहले तो मेरी बेटी ठीक थी एवं वर्तमान में वह तीसरी कक्षा की मेधावी छात्रा है। हमारे सारे खानदान में किसी को शुगर नहीं है। इस जाँच की रिपोर्ट पर मुझे तनिक भी भरोसा नहीं है। कृपया आप ठीक से देखें एवं बताएँ। उक्त कथन था टाइप-1 मधुमेह से ग्रस्त गौरी के हकबकाये पिता शिवदयाल का।
खैर! जाँच आदि के बाद बच्ची के बाल मधुमेही होने की पुष्टि हो गई। ‘‘अब इंसुलिन इंजेक्शन ही इसकी जीवनरेखा है। साथ ही समय-समय पर ब्लड शुगर भी चेक करवाते रहें। अन्य किसी भी समस्या के लिए भी तुरंत दिखलाएँ एवं उसे नजर अंदाज न करें।’’ यह कहकर डॉक्टर साहब अपने अगले मरीज में व्यस्त हो गये।
इधर गौरी के माता-पिता तो बेजान से हो गये। मासूम गौरी उनके चेहरे के भावों को देखकर शायद अपनी’’ कमी’’ से परिचित हो गई। रोग लाइलाज नहीं है यह जानते हुये भी गौरी के माता-पिता गहरे अवसाद में डूब गये। अनेक अनुत्तरित प्रश्न उनके जेहन में कौध रहे थे:- क्या हमारी बच्ची सामान्य बच्चों की तरह विकसित होगी?
बच्चों में मधुमेह (टाईप-1 डायबिटीज) वास्तव में एक जटिल समस्या है। इसका इलाज इंसुलिन इंजेक्शन, परहेजी भोजन के साथ रोगी को समुचित सामाजिक एवं मानसिक संरक्षण के द्वारा ही सफलतापूर्वक किया जा सकता है। मात्र इंसुलिन इंजेक्शन तक सीमित न रहकर वास्तव में स्वास्थ्य सेवी संगठनो को बाल मधुमेही के लिए सामाजिक, आर्थिक व पारिवारिक संरक्षण देने की दिशा मे भी पहल करनी चाहिए। सामाजिक संरक्षक दल में कोई भी सामाजिक कार्यकर्ता, नर्स, चिकित्सक, पेरामेडिकल कार्यकर्ता, नेतागण, घर के सदस्य, पडोसी, अन्य मरीज या अन्य कोई भी मित्र व हितैषीगण हो सकते है। भावनात्मक व सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के साथ ही ये संगठन समाज में डायबिटीज रोग के बारे मे जागरूकता फैलाते है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर मरीजो के सहायतार्थ धन एवं फ्री इंसुलिन आदि उपलब्ध कराने हेतु सामाज के धनाढय वर्ग की सहायता से ट्रस्ट की स्थापना की जा सकती है।
मधुमेह पता चलने के बाद मानसिक तनाव
इस रोग के होने का पता चलने के तुरन्त बाद अधिकतर मरीज इस सत्य का सामना सामान्य रूप से नही कर पाते वे तनाव ग्रस्त हो जाते है। कुछ बच्चों मे तो नर्वस ब्रेक डाउन या डिपे्रशन की समस्या देखी जाती है। परन्तु साल -छह महीने बीतते, सब कुछ सामान्य हो जाता है। कुछ बच्चो मे नीद न आना चिड़चिड़ापन, अन्य बच्चो से कम घुलना-मिलना, बातचीत करने में झिझकना आदि लक्षण देखे जाते है।
मधुमेह के साथ बड़ा होना एक चुनौती
वास्तव में मधुमेह एवं मानसिक परिवर्तनों का चोली दामन का साथ है। बार-बार शुगर कम होना (हाइपो मे जाना) बच्चो के मानसिक विकास में बाधक हो सकता है। साथ ही यह स्नायु तंत्र (Nervous System) एवं शरीर की अन्य रासायनिक प्रक्रियाओं पर भी दुष्प्रभाव डालता है। नतीजतन आंख का पर्दा खराब होना (रेटिनापैथी) गुर्दा खराब होना (नेफ्रोपैथी) पैर में सुन्नपन आना (न्यूरोपैथी) जैसी जटिलताएं असमय सामने आने लगती है। किशोर एवं युवा वर्ग में हार्मोन्स की वजह से होने वाले सामान्य परिवर्तन, उत्सुकता एवं तनाव को जन्म देते है। ऐसे मे मधुमेह ग्रस्त युवा दोहरे मानसिक तनाव को झेलते है। खेल-कुछ, योग-ध्यान, व्यायाम के लिए विशेष रूप से बच्चो को प्रोत्साहित करें। ये क्रीड़ायें स्वाभाविक रूप से ब्लड शुगर कम करती है। इससे बच्चो में स्फुर्ति, आशा एवं आत्म विश्वास का संचार होता है। साथ ही हीन भावना नष्ट होती है। परन्तु बच्चो को खेल के दौरान लगने वाली चोटो पर अवश्य ध्यान दें। उन्हे समझायें कि जुते-चप्पल पहन कर ही खेलना सुरक्षित तरीका होता है।
शिक्षा मे कोई कमी न आने दें -
बाल मधुमेही की बीमारी का वास्ता देकर उसे स्कूली शिक्षा से वचिंत रखना घोर अपराध है। कुछ स्कूल एवं अध्यापक रोग ग्रस्त बच्चो को एडमीशन देने से कतराते है। वास्तव में ऐसा मधुमेह सम्बंधी उचित जानकारी के अभाव में होता है। बीमारी एवं अनुपस्थिति के दिनो को हटा दे तो आम तौर पर ये बच्चे अच्छे विद्यार्थी साबित होते है। उच्चशिक्षा क्षेत्र, खेलकूद के क्षेत्र एवं अन्य व्यवसायों में ये बच्चे नाम एवं धन अर्जित कर रहे है। स्वामी विवेकानन्द, हालीबुड अभिनेत्री हैलीमेरी, स्टार क्रिकेटर वसीम अकरम आदि साहसिक टाइप-1 मरीजो के ज्वलंत उदाहरण हैं। सच ही कहा है- ‘‘हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा’’।
परिवार की भूमिका
बाल मधुमेही के सारे परिवार पर किसी न किसी रूप में नाकारात्मक मानसिक प्रभाव देखा जा सकता है। बच्चे की मां को भी बीमारी का पता चलने के बाद मानसिक तनाव व अवसाद की स्थिति से उबरने मे लगभग 4-6 महीने का समय लग जाता है। इस बच्चे की देख भाल का मुख्य दायित्व मां के कन्धो पर होता है। ऐसे में जाहिर है अन्य बच्चों की देखभाल व घर के कामों का भी बोझ उठाना मुश्किल होता है। परिवार के अन्य सदस्यों पर बालमधुमेही की देख भाल एक विशेष जिम्मेदारी है। घर के अन्य सदस्यों की तुलना में जाने -अनजाने बालमधुमेही स्वयं को अलग श्रेणी में खड़ा पाते है।
बालमधुमेही यानि सारा जीवन नपा-तुला भोजन, रोजाना इंसुलिन इंजेक्शन, ब्लड शुगर की जांच, व्यायाम आदि । परन्तु माता -पिता की आपसी समझ, घर का तनाव रहित एवं सौहार्द पूर्ण वातावरण, बेहतर वैचारिक आदान-प्रदान एवं रोग ग्रस्त बच्चे के जीवन को बेहतर बनाने का सामूहिक लक्ष्य, रोगी को मानसिक रूप से बेहतर बनाने का सामूहिक लक्ष्य, रोगी को मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाकर इस समस्या का मुकाबला करने में सहायक होता है। स्वस्थ टाईप-1 मरीज अक्सर सामान्य सम्बन्ध बनाते है। यहा पर ‘‘ स्वस्थ्य’’ शब्द नियंत्रित मधुमेह एवं अच्छे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का परिचायक है।घर का साकारात्मक वातावरण भी रोगी के व्यवहार व बात चीत पर प्रभाव डालता है।
वैवाहिक जीवन
सकारात्मक परिवार के बाल मधुमेही आत्म विश्वासी किशोर एवं युवा होते है। ये समान्य वैवाहिक जीवन व्यतीत करते है। इनके रोग सम्बधी सारी जानकारी जीवनसाथी एवं उसके परिवार वालों को होना चाहिये। विवाहोपरांत संतान प्राप्ति की राह थोडी़ कठिनाईयों से भरी हुई हैं। नियमित चिकित्सकीय परामर्श एवं सजगता से इनका भी मुकाबला किया जा सकता है। आत्मविश्वास(Self Confidence) एवं अपने स्वास्थ्य के प्रति रहने वाले बच्चों में शुगर कंट्रोल प्रायः अच्छा रहता है एवं इस रोग की जटिलताएँ भी कम हो जाती है। मधुमेह सम्बंधी जानकारी पत्रिकाओं के माध्यम से प्राप्त करने से रोग सम्बंधी भ्रांतियाँ तों दूर होगी साथ ही आत्म विश्वास भी जागेगा।
खान-पान एक समस्या
चॉकलेट,मिठाई फास्ट फूड एवं होटल आदि का खाना नही खाने की हिदायतों से तगं आकर कभी-कभी रोगी बगावत भी कर देते है। परन्तु अक्सर यह बगावत महगी पड जाती है अत: खान पान में सदैव सतर्कता बरतें। साथ ही समय समय पर डायटीशियन से मशवरा शुगर कंट्रोल में सहायक सिद्ध होता है।
फियर फैक्टर (Fear Factor)
रोजाना इंसुलिन इंजेक्शन की चुभन का एहसास व शुगर की जाँच के समय खून निकलने का भय मरीज पर मानसिक दबाव डालता है। यह स्थिति उन्हे स्वंय इंजेक्शन लेने एवं जाँच करने से रोकती है एवं आत्मनिर्भता की दिशा में बाधक है।
काँटो भरी राह
मधुमेह की जटिलताओं से भरा जीवन रोगी के लिये शारीरिक एवं मानसिक परेशानी का सबब बन सकता है। ये जटिलताये मधुमेही को सदैव याद दिलाती है कि भरसक प्रयास के पश्चात भी वे इस रोग के सामने विवश है एवं यह भावना मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) पैदा करती है। अनियंत्रित मधुमेह अपर्याप्त पारिवारिक संरक्षण, बीमारी को शारीरिक कष्ट, आर्थिक असुरक्षा, इन रोगियों में तनाव व कुंठा की भावना पैदा करता है।
आशा की ज्योति
इंसुलिन के आविष्कारक सर फ्रेडरिक बेंटिंग के पुश्तैनी मकान जिसमें रहते हुये उनके मन में इंसुलिन का विचार पनपा था के ठीक सामने प्रज्जवलित ‘‘फ्लेम ऑफ होप’’ (Flame of Hope) वास्तव में पीढ़ियों से वैज्ञानिकों व चिकित्सकों के लिये प्रेरणा का श्रोत बनी हुई है। मधुमेह से मुक्ति का उपाय (Permanent Cure) ज्ञात होते ही इस ज्योति को बुझा दिया जायेगा........तब तक शायद इंसुलिन ही बाल मधुमेही मरीजों के लिये एकमात्र आशा .......। |
मधुमेह - मनोवैज्ञानिक पहलू
मधुमेह - मनोवैज्ञानिक पहलू |
कोई भी लम्बे समय तक चलने वाला रोग एक तनाव (Stress) के रूप में कार्य करता है। मधुमेह एक दीर्घकालिक रोग है अतः यह भी एक तनाव के रूप में रोगी के मनोविज्ञान को प्रभावित करता है। रोग ज्ञात होने के क्षण से लेकर आजीवन वह विभिन्न मनः स्थितियों से गुजरता है। आप सभी क्लब के सदस्य इस सत्य से भली भांति परिचित होंगे। मैं जो कुछ भी कहने जा रही हूँ, आप पायेंगे कि जैसे आप के विषय में ही बात की जा रही है।
रोग निदान पर प्रारम्भिक प्रतिक्रिया:
प्रथम बार संज्ञान में आने पर रोगी की सामान्य प्रतिक्रिया नकारात्मक होती है। नहीं, नहीं, मुझे यह रोग नहीं हो सकता, अवश्य ही रिपोर्ट बदल गयी होगी, यह पैथालोजी क्लिनिक विश्वसनीय नहीं है, इस प्रकार की प्रतिक्रिया आम है। अधिकांशतः व्यक्ति किसी दूसरे क्लिनिक से पुनः जांच कराता है। कई बार इस कडुए सत्य को स्वीकार करने में काफी वक्त लगता है। एक बार व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकारने के लिए जब बाध्य हो जाता है तो उसकी अगली प्रतिक्रिया क्रोध की होती है, और यह एक स्वस्थ और स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, क्योंकि उसे अपने जीवन-शैली में आजीवन व्यापक परिवर्तन करने होते हैं। व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है, बात-बात में झल्लाना, तुनक मिजाज हो जाना उसका स्वभाव बन जाता है।
हे भगवान! यह तूने किस बात का दण्ड दिया? ऐसे कौन से पाप कर्म मैंने किये थे कि यह रोग मुझे हो गया? मैं ही क्यों? इस प्रकार के प्रश्न मन में घुमड़ने लगते हैं। सभी मनुष्य कुछ न कुछ गलत कार्य अवश्य करते हैं। इन्हीं को सोचकर व्यक्ति के अन्दर अपराध-बोध घर करने लगता है कि अवश्य ही मेरे उन कर्मों का दण्ड मुझे मिला है।
अन्ततः व्यक्ति अवसाद या नैराश्य की अवस्था में आ जाता है। सामाजिक रूप से अपने को काट लेता है, हर वक्त सोचता रहता है। इन सारी स्थितियों से होते हुए व्यक्ति धीरे-धीरे इस बीमारी होने के सत्य को स्वीकारने लगता है। उसकी मुलाकात अन्य रोगियों से भी होती है, उसे लगता है कि वह अकेला ही पीड़ित नहीं है। यदि उसे उचित मार्ग दर्शन करने वाला चिकित्सक, सलाहकार या ऐसी संस्था जो इस कार्य में लगी हुई है का सहयोग प्राप्त हो जाता है तो वह शीघ्र ही इस निराशा की स्थिति से निकल कर इस चुनौती से मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाता है।
इस पूरे चक्र में कभी-कभी एक वर्ष तक का समय लग जाता है। यह समय इस बात पर निर्भर करता है कि रोगी के इस रोग के होने के पश्चात् कंट्रोल करने के उपाय आदि के बारे में उचित जानकारी कितनी जल्दी मिल जाती है।टाइप-1 मधुमेह रोगी बच्चे इस मामले में अधिक मनोवैज्ञानिक लचीलापन रखते हैं। एक अध्ययन के अनुसार 36% बच्चों ने रोग निदान के 3 माह के भीतर मानसिक तनाव के लक्षणों का प्रदर्शन किया अधिकांश के साथ ‘‘सामंजस्य’’ की समस्या आई। बच्चों को इसे स्वीकार करने, अपने गतिशील बाल्य काल के साथ पटरी बैठाने एवं नियमित इन्सुलिन इन्जेक्शन लेने के बीच सामंजस्य स्थापित करने में वक्त लगता है। ऐसे में परिवारजन, स्कूल के अध्यापक एवं सहपाठियों का सहयोग एवं रवैया काफी अहमियत रखता है। जिस परिवार में कोई बच्चा मधुमेह रोगी हो जाता है, उस परिवार के सदस्यों में भी तनाव के लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं, विशेष कर माँ-बाप में। इस बच्चे का भविष्य क्या होगा, यदि लड़की है तो शादी का क्या होगा, भगवान ने मेरे बच्चे को ही यह रोग क्यों दिया आदि प्रश्न मन-मस्तिष्क को मथने लगते हैं। बच्चे के साथ माता-पिता को भी इसे स्वीकारने एवं सामंजस्य स्थापित करने में वक्त लगता है।
एक बार स्वीकारोक्ति हो जाने के बाद चिकित्सा की जाती है। बिना शारीरिक श्रम किये, जीवन- शैली में व्यापक बदलाव किये यदि यह रोग समाप्त हो जाये तो क्या कहने! बार-बार इस रोग के कारण के बताने एवं यह समझाने पर भी कि फिलहाल व्यक्ति किसी चमत्कार की आशा में रहता है। जैसे ही उसे कोई बताता है कि अमुक स्थान पर अमुक व्यक्ति इसका शर्तिया इलाज करता है, वह वहां भागा हुआ जाता है। यह भाग-दौड़ कई बार जीवन पर्यन्त बनी रहती है। कुछ लोग दो-चार बार धोखा खाकर संभल जाते हैं। किसी चिकित्सा पद्धति में इस रोग को समाप्त करने की औषधि नहीं है, और जीवन भर नियमित चिकित्सा में रहना होगा।
दूसरी मानसिकता जो इसके इलाज में बाधक होती है, वह है दवाओं का अंग्रेजी और देशी होना। रोगी भले ही आधी गोली पर नियंत्रित क्यों न हो, वह देशी के चक्कर में कितनी भी दवा खाना पसन्द करता है, और बार-बार अपनी चिकित्सा से छेड़छाड़ करता है। यदि खाने की दवाओं से रोग पर समुचित नियंत्रण नहीं हो पा रहा है, और रोगी को इन्सुलिन लेने की सलाह दी गई, तब वह एक बार पुनः तनाव में आ जाता है। इन्सुलिन न लेना पड़े इसके लिए वह तमाम तरह के तर्क गढ़ लेता है। एक बार लगा लूँगा तो फिर केाई दवा काम नहीं करेगी, इन्सुलिन लेने से आयु घट जाती है, जिसने भी इन्सुलिन लिया शीघ्र ही मर गया, यह चरस है, एक बार लगा तो छूटता नहीं है, इत्यादि धारणायें आम हैं। कई बार चिकित्सक भी रोगी कहीं और न चला जाय इस डर से इन्सुलिन लगाने की सलाह देने से घबराते हैं। अधिकांश रोगी तब तक इन्सुलिन टालते रहते हैं जब तक कोई जटिलता सामने आ खड़ी नहीं होती और तब ‘‘मरता क्या न करता’’ वाली मनः स्थिति में इन्सुलिन लेते हैं, और एक बार थोड़ा स्वस्थ होने पर बिना चिकित्सीय सलाह से इन्सुलिन छोड़ देते हैं।
चूँकि यह दीर्घकालिक रोग है और पूरे शरीर को प्रभावित करता है अतः भविष्य में होने वाली जटिलताएं पुनः एक बार तनाव का कार्य करती हैं और व्यक्ति पहले बताए गये अवस्थाओं से गुजरने लगता है।
रोग के इस मनोवैज्ञानिक पहलू से निपटने के लिए योग्य मनोवैज्ञानिक सलाहकार की मदद मिलनी चाहिए जिसे ‘काउन्सलर’’ कहा जाता है। भारत में मनोवैज्ञानिक सलाहकारों की अवधारणा की सामाजिक स्वीकारोक्ति अभी नहीं हो पायी है, और यह सारे कार्य चिकित्सक को ही करने पड़ते हैं जो रोगियों की संख्या के कारण इसे सक्षम रूप से सम्पादित नहीं कर पाता। ऐसे में ‘‘डायबिटिज सेल्फ केयर क्लब’’ जैसी संस्था काफी सशक्त रूप से इस कमी को पूरा कर सकते हैं।
क्लब के वरिष्ठ सदस्य जो इस अवस्थाओं से गुजर चुके हैं नये रोगियों के लिए मनोवैज्ञानिक सलाहकार का कार्य कर सकते हैं, ताकि रोगी नैराश्य से निकल कर शीघ्र-अतिशीघ्र इस चुनौती का मुकाबला करने में सक्षम हो सके।
डा0 विद्यावतीरीडर, मनोविज्ञान विभाग सेण्ट एण्ड्रयूज कालेज, गोरखपुर न्यायिक सदस्य ‘किशोर न्याय बोर्ड’ |
मधुमेह -समस्या की प्रबलत
मधुमेह -समस्या की प्रबलता |
दीर्घकालिक रोगों में जो समय के साथ शरीर के विभिन्न अंगों को क्षति पहुचातें है, मधुमेह प्रमुख है। यह एैसा रोग है जिसका तात्कालिक प्रभाव अधिकांश रोगियों में देखने को नहीं मिलता, और लम्बे समय तक पीड़ित व्यक्ति को इस बात का आभास नही होता कि वह इससे ग्रसित है और किसी शारीरिक अंग-यथा गुर्दे, आँख, हृदय आदि के प्रभावित होने के फलस्वरूप होने वाले लक्षण आने के पश्चात ही इस रोग का संज्ञान हो पाता है। संक्रामक रोगों पर नियंत्रण के पश्चात मधुमेह एक वैश्विक महामारी के रूप में उभर कर सामने आया है, जो तत्काल क्षति पहुचाने के बजाय एक दीमक की तरह आने वाले समय में हमारे मनुष्य जगत को खोखला करने वाला है। इसमें भी टाइप - 2 मधुमेह रोगियों की संख्या में सर्वाधिक इजाफा होने वाला है जो 30 वर्ष से उपर की आयु के लोगो को अपने चपेट में लेता है। यद्यपि कि पिछले कुछ वर्षो से अब 30 वर्ष से कम आयु के लोगों में भी टाइप - 2 रोगी मिलने लगें है और समस्या की प्रबलता घटने के बजाये बढ़ती जा रही है और यह अत्यन्त चिन्ता का विषय है। यही आयु मनुष्य का सर्वाधिक क्रियाशील और विभिन्न सामाजिक पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाला काल होता है निश्चय ही यह न केवल व्यक्ति के अपने कार्यक्षमता को क्षति पहुंचायेगा, वरन सरकार और देश के बहुमूल्य स्वास्थ सेवाओं और आर्थिक संसाधनो को भी निचोड़ेगा। बेहतर होती चिकित्सीय सुविधाओं से लोगों की औसत आयु पिछले 40 वर्षो में 59 वर्ष से बढ़कर 64 वर्ष हो गई है। मधुमेह के सन्दर्भ में इसका अर्थ होगा मधुमेह जनित जटिलताओं से पीड़ित जनसंख्या में वृद्धि और अपेक्षित संसाधनों में तुलनात्मक कमी।
इण्टरनेशनल डायबीटीज फेडेरेशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘डायबीटीज एटलस’ के तृतीय संस्करण के माध्यम से आइये देखते है कि इस समस्या की प्रबलता कितनी है यह सभी आकड़े 20 से 79 वर्ष के आयु के है। सन् 2007 के आंकड़े बताते है कि विश्व स्तर पर 24.6 करोड़ लोग (आबादी का 5.9%) मधुमेह से पीड़ित थे, जिनकी संख्या 2025 में बढ़ कर 38 करोड़ (आबादी का 7%) हो जायेगी। करीब करीब 55% की बढोत्तरी होगी।
सन् 1994 में अनुमान लगाया गया था कि 2010 में मधुमेह रोगियों की संख्या 23.9 करोड़ हो जायेगी जबकि 2007 में ही यह संख्या 24.6 करोड़ हो चुकी है, यानि कि हम तीन वर्ष पहले ही अनुमानित आंकड़े को पार कर चुके है, यह अत्यन्त चिन्तनीय है, भारत के सन्दर्भ में यदि हम देखें तो सन् 2007 में मधुमेह रोगियों की संख्या 4.65 करोड़ थी जो 2025 तक बढ़कर 8.83 करोड़ हो जायेगी। करीब-करीब 73% की बढ़ोत्तरी होगी। गौर तलब यह है कि जितने मधुमेह रोगी ज्ञात रूप में सामने होते हैं लगभग उतने ही लोग मधुमेह के कगार पर खड़े होते जिन्हे हम ‘प्री-डायबीटीज’ (Pre-Diabetes) की अवस्था कहते हैं। ‘‘प्री - डायबीटीक को हम आज की तारीख में मधुमेह के घोषित मानक के तत्काल पहले की अवस्था को कहते हैं। सामान्य तौर पर किसी स्वस्थ व्यक्ति का रक्त शर्करा खाली पेट जांच कराने पर 110 मिग्रा. से कम होना चाहिए और 75 ग्राम ग्लूकोज पीने के दो घंटे बाद 140 से कम होना चाहिए। यदि यह खाली पेट 126 या उससे अधिक और ग्लूकोज पीने के 2 घंटे बाद 200 या उससे अधिक हो तो उस व्यक्ति को मधुमेह रोग है। यदि यह खाली पेट 110 से अधिक और 126 के नीचे हो और ग्लूकोज के बाद 140 से 200 के बीच हो तो उसे हम बाधित ग्लूकोज निस्तारण (Impaired Glucose Tolerance; IGT) कहते हैं। एैसे व्यक्ति जो IGT के श्रेणी में आते है उनमें से करीब 70% आगे चलकर मधुमेह रोगी हो जाते है। सन 2007 में जहाँ मधुमेह रोगियों की संख्या 24.6 करोड़ थी वहीं IGT की संख्या 30.8 करोड़ थी। सन् 2025 में IGT की संख्या 41.8 करोड़ हो जायेगी। इस प्रकार यदि हम घोषित मधुमेह रोगियों एवं संभावित मधुमेह रोगियों (IGT) की संख्या जोड़ दें तो समस्या की प्रबलता और भी गंभीर हो जाती है।
यह अफसोस का विषय है कि सन् 1994 में 2010 के लिये जो भविष्यवाणी की गई थी उसे झुठलाने में हम नाकामयाब रहें। सन् 2025 के प्रस्तावित आकड़ो को यदि हमें झुठलाना है और चुनौती देनी है तो हमे गभीरंता पूर्वक आज के युवाओं को जिसकी उम्र 15 से 30 वर्ष के बीच है जागृत करना होगा, क्योकि 17 वर्ष बाद यही वर्ग 32 से 47 वर्ष की आयु में होगा और अधिकांश नये रोगी इसी वर्ग से सामने आयेंगें। अतः आज के बच्चों एवं युवाओं को हमे नियमित व्यायाम, उचित भोजन चयन, एवं जीवन शैली के प्रति न केवल जागरूक करना होगा, वरन सतत् निगरानी भी रखनी होगी और निरन्तर इस पर बल देना होगा। इस के लिये कई स्तर पर प्रयास करने होगें। जैसे पारिवारिक, शिक्षण संस्थाओं, कार्यालय आदि के माध्यम से हमें एक अभियान छेड़ना होगा जिसमें मीडिया की भूमिका भी अहम् होगी।
आइये अब हम यह देखते हैं कि मधुमेह किस प्रकार हमारे चिकित्सीय संसाधनो को चुनौती देगी-
मधुमेह रोगियों के गुर्दे में खराबी (Nephropathy) आ जाती है उन्हे ‘डायालिसिस’ और गुर्दा प्रत्यारोपण की आवश्यकता पड़ने लगती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आने वाले समय में अच्छी संख्या में हमारे पास गहन हृदय चिकित्सा केन्द्र, डायालिसिस केन्द्र, नेत्र सम्बन्धी उपचार हेतु उच्चीकृत नेत्र चिकित्सा केन्द्र, पैर चिकित्सा केन्द्र आदि की सुविधा की आवश्यकता पडेगी। केवल चिकित्सा सुविधाओं के उपलब्ध होने से भी काम नहीं चलेगा वरन रोगियों को पैसे भी खर्च करने पडे़गे। संसाधनों के आभाव में सरकारी चिकित्सालयों की जो वर्तमान स्थिति है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अच्छे सुविधायुक्त केन्द्रों पर रोगियों का कितना दबाव होगा।
कालान्तर में श्रम न करने की प्रवृत्ति और उच्च वसा एवं उर्जा युक्त भोजन की प्रचुरता के कारण मधुमेह रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है। जिस प्रकार साहित्य समाज का दर्पण होता है उसी प्रकार मधुमेह शहरीकरण, आद्यौगिकीकरण एवं आर्थिक विकास का दर्पण होता है यह कहने में अतिश्योक्ति न होगी।
समस्या की प्रबलता को देखते हुए बड़े पैमाने पर जन - जागरण अभियान की परम आवश्यकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुये डायाबिटीज सेल्फ केयर क्लब निरन्तर अपने मासिक बैठको के माध्यम से इस अभियान में लगा हुआ है और इस वर्ष ‘मधुमेह विजय’ नामक कार्यक्रम के माध्यम से विभिन्न स्कूलो में व्याख्यान एवं पोस्टर प्रतियोगिताओं के माध्यम से बच्चों के अन्दर इस रोग के प्रति जागरूकता अभियान चलाने जा रहा है। आइये हम सभी संकल्प ले कि इस गंभीर चुनौती से निपटने के लिये हम अपने प्रयासों में कोई कमी नही आने देंगें।
डा0 आलोक कुमार गुप्ताएम0डी0 |
मधुमेहः इतिहास के झरोखे से
मधुमेहः इतिहास के झरोखे से |
मधुमेह रोग आज सबसे व्यापक रोग के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। शायद ही कोई होगा जो ‘डायबिटिज’, ‘मधुमेह’, ‘शुगर’ की बीमारी से अपरिचित हो। ऐसा भी नहीं कि यह बीमारी प्राचीन युग में नही थी। आइये वर्तमान इतिहास में झाँक कर देखें कि इस बीमारी के बारे में लोगों की जानकारी और धारणायें क्या थीं। इस हेतु हम इतिहास को तीन खण्डों में बाँट कर चलते हैं-
1. प्राचीन युग (600 ए.डी. तक)
इस बीमारी का लिखित प्रमाण 1550 ई.पू. का मिलता है। मिस्र में ‘पापइरस कागज’ पर इस बीमारी का उल्लेख मिलता है, जिसे जार्ज इबर्स ने खोजा था, अतः इस दस्तावेज को ‘इबर्स पपाइरस’ भी कहते हैं। दूसरा प्राचीन प्रमाण ‘कैपाडोसिया के एरीटीयस द्वारा दूसरी सदी का मिलता है। एरीटीयस ने सर्वप्रथम ‘डायाबिटिज’ शब्द का प्रयोग किया, जिसका ग्रीक भाषा में अर्थ होता है ‘साइफन’। उनका कहना था कि इस बीमारी में शरीर एक साइफन का काम करता है और पानी, भोजन, कुछ भी शरीर में नहीं टिकता ओर पेशाब के रास्ते से निकल जाता है, बहुत अधिक प्यास लगती है और शरीर का मांस पिघल कर पेशाब के रास्ते बाहर निकल जाता है। 400-500 ई.पू. के काल में भारतीय चिकित्सक चरक एवं सुश्रुत ने भी इस बीमारी का जिक्र अपने ग्रन्थों में किया है। संभवतः उन्होंने सर्वप्रथम इस तथ्य को पहचाना कि इस बीमारी में मूत्र मीठा हो जाता है। उन्होंने इसे ‘मधुमेह’ (शहद की वर्षा) नाम दिया। उन्होंने देखा कि इस रोग से पीड़ित व्यक्ति के मूत्र पर चीटियाँ एकत्रित होने लगती हैं। उन्होंने दो प्रकार के मेह की चर्चा की है-उदक (जल) मेह और इक्षु (गन्ना) मेह जिसे आजकल हम ‘डायबिटीज इनसीपीडस’ और ‘डायबिटिज मेलाइट्स’ के नाम से जानते हैं। इक्षु में दो प्रकार के मधुमेह रोगियों का वर्णन मिलता है-एक वह रोगी जो स्थूलकाय, अधिक खाने वाले, और शिथिल जीवन शैली जीने वाले आरामतलब प्रवृत्त्ति के होते हैं (आज के टाइप-2 रोगी) और दूसरे क्षीणकाय, बहुत अधिक पेशाब करने एवं पानी पीने वाले (आज के टाइप-1 रोगी)। लक्षणों में थकान, सुस्ती, शरीर में दर्द का वर्णन मिलता है। जटिलताओं में न सूखने वाले घाव (Carbuncle) एवं हाथ पैरों में जलन, का वर्णन मिलता है।
नया अन्न, गुड़, चिकनाई युक्त भोजन, दुग्ध पदार्थों का अत्यधिक सेवन, घरेलू जानवरों का मांस भक्षण, मदिरा सेवन एवं विलासपूर्ण जीवन शैली इस रोग के जनक होते हैं। अल्पाहार, शारीरिक श्रम, शिकार करके मांस भक्षण करना आदि उपाय बताये गये हैं। आप कहेंगे कि यह बातें आज भी उतनी ही सत्य है। फर्क इतना है तब पैनक्रियाज एवं इंसुलिन की जानकारी नहीं थी। एरीटीयस एवं गेलन समझते थे विकार गुर्दों में आ जाता है, और यह विचार करीब 1500 वर्षों तक कायम रहा।
2. मध्य-युगीन काल (600-1500 ए.डी.)
इस काल में मुख्य रूप से रोग के लक्षणों का और विस्तार से वर्णन मिलता है। चीन के चेन-चुआन (सातवीं सदी) और अरबी चिकित्सक एवीसेना (960-1037 ए.डी.) ने गैंग्रीन एवं यौनिक दुर्बलता का जिक्र जटिलताओं के रूप में किया है।
3. आधुनिक काल (1500-2004 ए.डी.)
इस काल में रोग के जानने के लिए तमाम प्रयास शुरू हुए। थामस विलिस (1674-75 ए.डी.) ने पुनः मूत्र के मीठेपन को उजागर किया। किन्तु इस मिठास का कारण शर्करा को न मान कर किसी और तत्व को माना। करीब सौ साल बाद 1776 में मैथ्यू डॉबसन ने मधुमेह रोगी के मूत्र को आँच पर वाष्पित कर भूरे चीनी जैसा तत्व अलग किया। उन्होंने यह भी पाया कि रक्त सीरम भी मीठा हो जाता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कलेन (1710-90) ने डायबिटिज में ‘मेलाइटस’ शब्द को जोड़ा। ‘मेल’ का अर्थ ग्रीक भाषा में शहद होता है। इस प्रकार एरीटीयस द्वारा दिये गये शब्द ‘डायबिटिज’ (साइफेन) एवं कलेन द्वारा दिये गये शब्द ‘मेलाइटस’ के संगम से, दो हजार वर्षों से अधिक काल के बाद इस बीमारी का वर्तमान नाम ‘डायबिटिज मेलाइटस’ वजूद में आया।
1850-1950 तक का काल काफी महत्वपूर्ण काल माना जाता है। इस काल में लोगों को वैज्ञानिक सोच में व्यापक बदलाव आया और रोग के मूल कारण को जानने के तीव्र प्रयास हुए। यह दौर ‘प्रयोगिक-विज्ञान का दौर था। तथ्यों एवं परिकल्पनाओं को प्रयोगशालाओं में प्रमाणित करके उसे सत्यापित करने के प्रयास शुरू हुए। 1879 में पॉल लैंगर हेन्स ने सर्वप्रथम अपने शोधपत्र में पैनक्रियाज ग्रन्थि के कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं का जिक्र किया जो छोटे-मोटे द्वीप-समूहों में बिखरे रहते हैं।
वॉन मेरिंग एवं मिनकोविस्की ने सन् 1889 में दो कुत्तों का पैनक्रियाज ग्रन्थि शल्य क्रिया द्वारा निकाल दिया। अगले ही दिन उन्होंने पाया कि कुत्तों में मधुमेह के लक्षण (बहुमूत्र) उत्पन्न हो गये और उनके मूत्र परीक्षण में शर्करा पाया गया। इस प्रकार वह यह साबित करने में सफल हुए कि मधुमेह का सम्बन्ध गुर्दों से न होकर पैनक्रियाज ग्रन्थि से है। उन्होने देखा कि यदि पैनक्रियाज ग्रन्थि का टुकड़ा स्थापित कर दिया जाये तो जब तक यह टुकड़ा जीवित रहता है, मधुमेह के लक्षण गायब हो जाते हैं। आगे चल कर लैग्यूसे ने यह विचार दिया कि पैनक्रियाज ग्रन्थि में लैंगरहेन्स द्वारा वर्णित कोशिकायें किसी ऐसे तत्व का स्राव करती हैं जो रक्त में शर्करा को नियंत्रित करता है। बाद में जीन-डी0 मेयर ने इस तत्व का नाम ‘इंसुलिन’ रखा।
इस इन्सुलिन नामक तत्व को पैनक्रियाज से अलग करने के प्रयास में कई वैज्ञानिक समूह लगे हुए थे। अन्ततः कनाडा के हड्डी रोग विशेषज्ञ फ्रेडरिक बैटिंग, टोरंटो विश्वविद्यालय के क्रिया-विज्ञान के प्रोफेसर जे0 जे0 आर मैकलियाड, मेडिकल छात्र चाल्र्स बेस्ट एवं बॉयोकेमिस्ट जेम्स कॉलिप ने 1921 में इसमें सफलता पाई। पैनक्रियाज ग्रन्थि द्वारा निकाले गये इस पहले निचोड़ को 11 जनवरी 1922 को लीयोनार्ड थाम्पसन नामक रोगी को दिया गया। इसके बाद इन्सुलिन को शुद्ध और परिष्कृत करने का दौर चला और आज हमें जिनेटिक इन्जीनियरिंग द्वारा ‘मानव इन्सुलिन’ उपलब्ध है।
एक बार इन्सुलिन की जानकारी होने के पश्चात्, शरीर द्वारा इसके निर्माण, नियंत्रण, कार्यविधि, आदि पर तमाम शोधकार्य शुरू हुए और आज भी जारी है। इन शोधों के फलस्वरूप पैनक्रियाज ग्रन्थि पर कार्य कर इंसुलिन का स्राव कराने वाली दवायें, इंसुलिन रिसेप्टर एवं उन पर कार्य करने वाली दवाओं का अविष्कार किया गया। इन दवाओं के पहले इलाज का एकमात्र रास्ता भोजन में व्यापक फेरबदल एवं शारीरिक श्रम था और इनके निष्प्रभावी होने पर धीरे-धीरे घुल कर मरने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता नहीं होता था। अब यदि जीवन शैली परिवर्तन एवं भोजन परिवर्तन के बाद मधुमेह नियंत्रण में नहीं आता है तो हमारे पास तमाम दवायें हैं और जब वह भी निष्प्रभावी हो जाती हैं तो रामबाण के रूप में हमारे पास इंसुलिन होता है जो कभी विफल नहीं होता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि करीब पिछले साढ़े तीन हजार साल से मनुष्य ने इस बीमारी पर विजय पाने के लिये कितने प्रयास किये हैं।
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मधुमेह- कुछ संभावित प्रश्न
मधुमेह- कुछ संभावित प्रश्न | ||||||||||||
प्रश्न: मधुमेह क्या है ?
उत्तर: रक्त में ग्लूकोज की मात्रा यदि एक निर्धारित सीमा से अधिक हो जाये तो उसे मधुमेह रोग (डायबिटिज) कहते हैं। रक्त में ग्लूकोज की मात्रा की मानक सीमा इस प्रकार है-
प्रश्नः रक्त में ग्लूकोज क्यों बढ़ जाता है ?
उत्तरः मधुमेह रोग में शरीर में इन्सुलिन आवश्यकता से कम बनने लगता है, एवं इन्सुलिन रिसेप्टर शिथिल पड़ने लगते हैं। फलस्वरूप ग्लूकोज समुचित रूप से जल कर ऊर्जा में परिवर्तित नहीं हो पाता, इस कारण ग्लूकोज रक्त में बढ़ जाता है।
प्रश्नः ब्लड शुगर एवं मूत्र शुगर क्या अलग-अलग बीमारियाँ हैं ?
उत्तरः मूल बीमारी रक्त में ग्लूकोज (शुगर) का बढ़ना होता है। जब रक्त ग्लूकोज एक सीमा से अधिक बढ़ जाता है तो शरीर उससे छुटकारा पाने के लिए गुर्दों के माध्यम से मूत्र में त्यागना शुरू कर देता है। मूत्र में ग्लूकोज का न होना मधुमेह रोग न होने का प्रमाण नहीं है।
प्रश्नः क्या यह समयबद्ध रोग है?
उत्तरः नहीं! यह जीवन भर का रोग है।
प्रश्नः बढ़े रक्त ग्लूकोज से क्या हानि है? इसे नियंत्रित करना क्यों आवश्यक है?
उत्तरः बढ़ा हुआ रक्त ग्लूकोज रक्त की रासायनिक गुणवत्ता को प्रभावित करता है। बढ़ा हुआ ग्लूकोज रक्त नलियों की भीतरी दीवार की कोशिकाओं को धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त करता है। इस प्रक्रिया में रोगी को किसी प्रकार का दर्द अथवा कष्ट नहीं होता और वह इससे बेखबर रहता है। एक सीमा से अधिक क्षति होने पर नाजुक अंगों यथा- आंख के पर्दे, हृदय, मस्तिष्क के कार्य प्रभावित होने लगते हैं, और तब रोगी को इसका आभास होता है और वह चेतता है, किन्तु तब तक काफी देर हो चुकी होती है। यदि रक्त ग्लूकोज को निर्धारित सीमा के अन्दर नियंत्रित न रखा जाए तो यह शरीर के प्रत्येक अंग को प्रभावित करता है-शारीरिक कष्ट हो अथवा नहीं।
प्रश्नः इसके लक्षण क्या होते हैं ?
उत्तरः इसके निम्न लक्षण हो सकते हैं-
प्रश्नः मधुमेह नियंत्रण का क्या मतलब है ?
उत्तरः रक्त ग्लूकोज को सामान्य के आस-पास रखना चाहिए। विभिन्न वैज्ञानिक शोधों से यह निर्विवादित रूप से सिद्ध हो चुका है कि यदि रक्त ग्लूकोज को नियंत्रित रखा जाये तो इस रोग से होने वाले विभिन्न जटिलताओं से लंबे अरसे तक बचा जा सकता है।
प्रश्नः चिकित्सा का उद्देश्य क्या है ?
उत्तरः चिकित्सा के निम्नलिखित उद्देश्य है:
प्रश्नः चिकित्सा के क्या उपाय हैं ?
उत्तरः मधुमेह चिकित्सा के लिए हमारे पास पांच हथियार हैं:
प्रश्नः मधुमेह रोगी को किस तरह का भोजन लेना चाहिए ?
उत्तरः मधुमेह रोगी का भोजन ऐसा होना चाहिए जो रक्त ग्लूकोज को बढ़ाने से रोके एवं रोग पर अनुकूल प्रभाव डाले। भोजन पौष्टिक होना चाहिए जिसमें कार्बोहाइड्रेट एवं रेशे, प्रचुर मात्रा में हों। भोजन की मात्रा भी शारीरिक श्रम के अनुसार नियंत्रित होना चाहिए।
प्रश्नः व्यायाम ?
उत्तरः यूँ तो व्यायाम की महत्ता स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी है, किन्तु मधुमेह रोग में इसकी विशेष भूमिका होती है। व्यायाम करने से शरीर का वजन कम होता है, पैरों में रक्त का संचार बढ़ता है, हृदय पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और रक्त ग्लूकोज को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। इन सबसे ऊपर आत्म विश्वास बढ़ता है।
प्रश्नः मधुमेह रोग में दवाओं की क्या भूमिका है ?
उत्तरः सबसे पहले यह अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि दवायें, भोजन एवं व्यायाम का विकल्प नहीं है। दवाओं के नम्बर सदैव इनके बाद आता है। चूंकि मधुमेह रोग शरीर की इन्सुलिन की कमी के कारण है, अतः यदि किसी प्रकार इन्सुलिन की मात्रा बढ़ाई जा सके तो इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। रोगी को सीधे इन्सुलिन दिया जा सकता है, किन्तु यह केवल ‘सूई’ के रूप में ही उपलब्ध है। इन्सुलिन की मात्रा को बढ़ाने का दूसरा तरीका खाने की दवायें हैं।
प्रश्नः मधुमेह रोगी को किस-किस जांच की आवश्यकता होती है ?
उत्तरः रक्त में बढ़ा हुआ ग्लूकोज पूरे शरीर को प्रभावित करता है, अतः प्रारम्भिक अवस्था में पूरे शरीर की जांच कराना आवश्यक होता है, जिसमें रक्त ग्लूकोज, ग्लाइकोसाइलेटेड हीमोग्लोबिन, रक्त वसा, मूत्र परीक्षण, हृदय, नेत्र परीक्षण इत्यादि जांच कराये जाते हैं।
प्रश्नः रक्त ग्लूकोज के जाँच में किन बातों का ध्यान रखा जाये ?
उत्तरः रक्त ग्लूकोज के जाँच में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जायेः
प्रश्नः हाईपोग्लासीमिया क्या होता है ?
उत्तरः रक्त में ग्लूकोज की मात्रा एक सीमा से कम होने लगे (50 मिग्रा प्रतिशत) तो उसे हाईपोग्लाइसीमिया कहते हैं। इस अवस्था में रोगी का मस्तिष्क ठीक ढंग से काम नहीं करता है, उसे घबराहट, बेचैनी, पसीना होने लगता है। रोगी के आस-पास के लोगों को लगता है कि रोगी ने कोई नशा कर रखा है। ऐसी हालत में तत्काल ग्लूकोज या शर्करायुक्त भोजन न दिया जाये तो रोगी बेहोश हो जाता है, और दिमाग अपूर्णीय रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है। अतः मधुमेह रोगियों के दवा की मात्रा अपने आप नहीं घटाना-बढ़ाना चाहिए और न ही बिना डाक्टरी सलाह के उपवास रखना चाहिए। याद रखें मधुमेह रोग दीर्घकालिक रोग है और इसके नियंत्रण में आपकी भूमिका सर्वाधिक है। सुनी सुनाई बातों पर न जाकर अपनी हर शंका का समाधान अपने चिकित्सक से करें और दीर्घकालिक क्रियाशील जीवन जीयें।
प्रश्नः इन्सुलिन का इंजेक्शन कब दिया जाता है ?
उत्तरः इन्सुलिन की आवश्यकता रोगी को दो अवस्थाओं में होती है। पहली अवस्था वह होती है जब खाने की दवायें अपने अधिकतम खुराक में भी प्रभावी नहीं रहती है, यानी की पैंक्रियास ग्रन्थि लगभग पूर्ण रूप से काम करना बंद कर देती है। ऐसी अवस्था में रोगी को जीवनपर्यन्त इन्सुलिन लेना पड़ता है। दूसरी अवस्था वह होती है, जहां रोगी का रक्त ग्लूकोज खाने की गोलियों या भोजन व्यायाम के माध्यम से नियंत्रण में रहता है, किन्तु कुछ ऐसे कारण उत्पन्न हो जाते हैं जब शरीर को अधिक इन्सुलिन की आवश्यकता पड़ती है, यथा शल्य क्रिया, गर्भावस्था, संक्रामक रोग इत्यादि। ऐसी अवस्था में रोगी को कुछ समय के लिए इन्सुलिन दिया जाता है और उस अवस्था के समाप्त होने पर रोगी पुनः खाने की दवा पर चला जाता है।
प्रश्नः एक बार इन्सुलिन सूई लें तो सदैव इन्सुलिन की सूई लेने की आदत पड़ जाती है। यह कहां तक सत्य है ?
उत्तरः यदि शरीर को किसी चीज की आवश्यकता है तो उसे शरीर को देना पड़ेगा अन्यथा शरीर सुचारू रूप से कार्य नहीं करेगा। जैसे शरीर के लिए भोजन एक अनिवार्यता है तो हम नियमित भोजन करते हैं और कभी यह प्रश्न नहीं करते हैं कि हमें भोजन की आदत पड़ जायेगी, उसी प्रकार यदि शरीर अपनी आवश्यकता के अनुसार समुचित इन्सुलिन का निर्माण नहीं कर पाता तो उसे बाहर से देना पड़ेगा इसमें आदत पड़ने जैसी कोई बात नहीं है।
प्रश्न: भोजन शरीर के लिए क्यों आवश्यक है ?
उत्तर: हमारा शरीर एक मशीन है, जिससे हम विभिन्न कार्य लेते हैं। किसी भी कार्य को करने के लिये ऊर्जा (Energy) की आवश्यकता होती है और ऊर्जा के लिये ईंधन की। भोजन ईंधन का काम करता है। शरीर रूपी मशीन में हुई टूट-फूट की मरम्मत के लिए भी भोजन की आवश्यकता होती है। मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान होते हैं। बिना भोजन के कोई भी जीव लम्बे काल तक जीवित नहीं रह सकता। हमें क्या और कितना खाना चाहिए, यह जानना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है, क्योंकि अधिकांश बीमारियां गलत आहार के कारण उत्पन्न होती हैं।
प्रश्न: भोजन के मुख्य घटक क्या होते हैं और उनकी क्या महत्ता है ?
उत्तर: भोजन के निम्न घटक होते हैं:-
प्रश्न: कैलोरी क्या होती है?
उत्तर: कैलोरी ऊर्जा का माप है। हम शारीरिक श्रम में जो ऊर्जा खर्च करते हैं या भोजन से जो ऊर्जा प्राप्त करते हैं उसे कैलोरी कहते हैं।
प्रश्न: किसी व्यक्ति को कितनी ऊर्जा की आवश्यकता है, इसका निर्धारण कैसे करते हैं?
उत्तर: सबसे पहले यह ज्ञात करते हैं कि उस व्यक्ति का आदर्श वजन कितना होना चाहिए।
आदर्श वजन: पुरूष: कद (सेमी. में) - 105 = वजन किग्रा. में स्त्री : कद (सेमी. में) - 107 = वजन किग्रा. में उदाहरण के लिए किसी पुरूष का कद 170 सेमी. है तो उसका आदर्श भार=170-105=65 किग्रा. होना चाहिए। इसके पश्चात् शरीर के लिये मूलभूत (Basic) ऊर्जा की आवश्यकता निकालते हैं। अब यदि व्यक्ति शिथिल जीवन शैली जीता है तो मूलभूत आवश्यकता का एक बटे तीन, यदि औसत जीवन शैली जीता है तो एक बटे दो और यदि अत्यधिक श्रम करता है तो उतनी ऊर्जा और उसमें जोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए व्यक्ति का जीवन 70 किलो है तो:- उसकी मूलभूत आवश्यकता 70 x 22 = 1540 कैलोरी शिथिल जीवन शैली 1540 + (1540/3) = 2055 कैलोरी साधारण जीवन शैली 1540 + (1540/2) = 2310 कैलोरी अत्यधिक श्रमयुक्त जीवन शैली 1540 + 1540 = 3080 कैलोरी यदि व्यक्ति आदर्श भार से अधिक वजन का है तो उसे उपरोक्त विधि से निकाली गई ऊर्जा से कम ऊर्जा का भोजन देते हैं, ताकि शरीर में संचित ऊर्जा खर्च की जा सके।
प्रश्न: भोजन में कैलोरी की मात्रा का निर्धारण होने के पश्चात् विभिन्न घटकों से कितनी ऊर्जा ली जाये, इसका क्या अनुपात होना चाहिए?
उत्तर: भोजन में ऊर्जा के साथ-साथ विभिन्न घटकों के अनुपात को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है। भोजन में 60-65 प्रतिशत ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट, 15-20 प्रतिशत प्रोटीन एवं 15-20 प्रतिशत वसा से प्राप्त होनी चाहिए। भोजन में रेशे की मात्रा समुचित होनी चाहिए, इस के लिए चोकर युक्त आटा, हरी सब्जी, सलाद एवं सम्पूर्ण फल का सेवन करना चाहिए।
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