Wednesday, August 17, 2016

मधुमेह - मनोवैज्ञानिक पहलू

मधुमेह - मनोवैज्ञानिक पहलू

कोई भी लम्बे समय तक चलने वाला रोग एक तनाव (Stress) के रूप में कार्य करता है। मधुमेह एक दीर्घकालिक रोग है अतः यह भी एक तनाव के रूप में रोगी के मनोविज्ञान को प्रभावित करता है। रोग ज्ञात होने के क्षण से लेकर आजीवन वह विभिन्न मनः स्थितियों से गुजरता है। आप सभी क्लब के सदस्य इस सत्य से भली भांति परिचित होंगे। मैं जो कुछ भी कहने जा रही हूँ, आप पायेंगे कि जैसे आप के विषय में ही बात की जा रही है।
रोग निदान पर प्रारम्भिक प्रतिक्रिया:

  1. अस्वीकृति (Denial)
  2. क्रोध (Anger)
  3. अपराध बोध (Guilt)
  4. नैराश्य (Depression)
  5. स्वीकारोक्ति (Acceptance)

प्रथम बार संज्ञान में आने पर रोगी की सामान्य प्रतिक्रिया नकारात्मक होती है। नहीं, नहीं, मुझे यह रोग नहीं हो सकता, अवश्य ही रिपोर्ट बदल गयी होगी, यह पैथालोजी क्लिनिक विश्वसनीय नहीं है, इस प्रकार की प्रतिक्रिया आम है। अधिकांशतः व्यक्ति किसी दूसरे क्लिनिक से पुनः जांच कराता है। कई बार इस कडुए सत्य को स्वीकार करने में काफी वक्त लगता है। एक बार व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकारने के लिए जब बाध्य हो जाता है तो उसकी अगली प्रतिक्रिया क्रोध की होती है, और यह एक स्वस्थ और स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, क्योंकि उसे अपने जीवन-शैली में आजीवन व्यापक परिवर्तन करने होते हैं। व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है, बात-बात में झल्लाना, तुनक मिजाज हो जाना उसका स्वभाव बन जाता है।
हे भगवान! यह तूने किस बात का दण्ड दिया? ऐसे कौन से पाप कर्म मैंने किये थे कि यह रोग मुझे हो गया? मैं ही क्यों? इस प्रकार के प्रश्न मन में घुमड़ने लगते हैं। सभी मनुष्य कुछ न कुछ गलत कार्य अवश्य करते हैं। इन्हीं को सोचकर व्यक्ति के अन्दर अपराध-बोध घर करने लगता है कि अवश्य ही मेरे उन कर्मों का दण्ड मुझे मिला है।
अन्ततः व्यक्ति अवसाद या नैराश्य की अवस्था में आ जाता है। सामाजिक रूप से अपने को काट लेता है, हर वक्त सोचता रहता है। इन सारी स्थितियों से होते हुए व्यक्ति धीरे-धीरे इस बीमारी होने के सत्य को स्वीकारने लगता है। उसकी मुलाकात अन्य रोगियों से भी होती है, उसे लगता है कि वह अकेला ही पीड़ित नहीं है। यदि उसे उचित मार्ग दर्शन करने वाला चिकित्सक, सलाहकार या ऐसी संस्था जो इस कार्य में लगी हुई है का सहयोग प्राप्त हो जाता है तो वह शीघ्र ही इस निराशा की स्थिति से निकल कर इस चुनौती से मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाता है।
इस पूरे चक्र में कभी-कभी एक वर्ष तक का समय लग जाता है। यह समय इस बात पर निर्भर करता है कि रोगी के इस रोग के होने के पश्चात् कंट्रोल करने के उपाय आदि के बारे में उचित जानकारी कितनी जल्दी मिल जाती है।
टाइप-1 मधुमेह रोगी बच्चे इस मामले में अधिक मनोवैज्ञानिक लचीलापन रखते हैं। एक अध्ययन के अनुसार 36% बच्चों ने रोग निदान के 3 माह के भीतर मानसिक तनाव के लक्षणों का प्रदर्शन किया अधिकांश के साथ ‘‘सामंजस्य’’ की समस्या आई। बच्चों को इसे स्वीकार करने, अपने गतिशील बाल्य काल के साथ पटरी बैठाने एवं नियमित इन्सुलिन इन्जेक्शन लेने के बीच सामंजस्य स्थापित करने में वक्त लगता है। ऐसे में परिवारजन, स्कूल के अध्यापक एवं सहपाठियों का सहयोग एवं रवैया काफी अहमियत रखता है। जिस परिवार में कोई बच्चा मधुमेह रोगी हो जाता है, उस परिवार के सदस्यों में भी तनाव के लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं, विशेष कर माँ-बाप में। इस बच्चे का भविष्य क्या होगा, यदि लड़की है तो शादी का क्या होगा, भगवान ने मेरे बच्चे को ही यह रोग क्यों दिया आदि प्रश्न मन-मस्तिष्क को मथने लगते हैं। बच्चे के साथ माता-पिता को भी इसे स्वीकारने एवं सामंजस्य स्थापित करने में वक्त लगता है।
एक बार स्वीकारोक्ति हो जाने के बाद चिकित्सा की जाती है। बिना शारीरिक श्रम किये, जीवन- शैली में व्यापक बदलाव किये यदि यह रोग समाप्त हो जाये तो क्या कहने! बार-बार इस रोग के कारण के बताने एवं यह समझाने पर भी कि फिलहाल व्यक्ति किसी चमत्कार की आशा में रहता है। जैसे ही उसे कोई बताता है कि अमुक स्थान पर अमुक व्यक्ति इसका शर्तिया इलाज करता है, वह वहां भागा हुआ जाता है। यह भाग-दौड़ कई बार जीवन पर्यन्त बनी रहती है। कुछ लोग दो-चार बार धोखा खाकर संभल जाते हैं। किसी चिकित्सा पद्धति में इस रोग को समाप्त करने की औषधि नहीं है, और जीवन भर नियमित चिकित्सा में रहना होगा।
दूसरी मानसिकता जो इसके इलाज में बाधक होती है, वह है दवाओं का अंग्रेजी और देशी होना। रोगी भले ही आधी गोली पर नियंत्रित क्यों न हो, वह देशी के चक्कर में कितनी भी दवा खाना पसन्द करता है, और बार-बार अपनी चिकित्सा से छेड़छाड़ करता है। यदि खाने की दवाओं से रोग पर समुचित नियंत्रण नहीं हो पा रहा है, और रोगी को इन्सुलिन लेने की सलाह दी गई, तब वह एक बार पुनः तनाव में आ जाता है। इन्सुलिन न लेना पड़े इसके लिए वह तमाम तरह के तर्क गढ़ लेता है। एक बार लगा लूँगा तो फिर केाई दवा काम नहीं करेगी, इन्सुलिन लेने से आयु घट जाती है, जिसने भी इन्सुलिन लिया शीघ्र ही मर गया, यह चरस है, एक बार लगा तो छूटता नहीं है, इत्यादि धारणायें आम हैं। कई बार चिकित्सक भी रोगी कहीं और न चला जाय इस डर से इन्सुलिन लगाने की सलाह देने से घबराते हैं। अधिकांश रोगी तब तक इन्सुलिन टालते रहते हैं जब तक कोई जटिलता सामने आ खड़ी नहीं होती और तब ‘‘मरता क्या न करता’’ वाली मनः स्थिति में इन्सुलिन लेते हैं, और एक बार थोड़ा स्वस्थ होने पर बिना चिकित्सीय सलाह से इन्सुलिन छोड़ देते हैं।
चूँकि यह दीर्घकालिक रोग है और पूरे शरीर को प्रभावित करता है अतः भविष्य में होने वाली जटिलताएं पुनः एक बार तनाव का कार्य करती हैं और व्यक्ति पहले बताए गये अवस्थाओं से गुजरने लगता है।
रोग के इस मनोवैज्ञानिक पहलू से निपटने के लिए योग्य मनोवैज्ञानिक सलाहकार की मदद मिलनी चाहिए जिसे ‘काउन्सलर’’ कहा जाता है। भारत में मनोवैज्ञानिक सलाहकारों की अवधारणा की सामाजिक स्वीकारोक्ति अभी नहीं हो पायी है, और यह सारे कार्य चिकित्सक को ही करने पड़ते हैं जो रोगियों की संख्या के कारण इसे सक्षम रूप से सम्पादित नहीं कर पाता। ऐसे में ‘‘डायबिटिज सेल्फ केयर क्लब’’ जैसी संस्था काफी सशक्त रूप से इस कमी को पूरा कर सकते हैं।
क्लब के वरिष्ठ सदस्य जो इस अवस्थाओं से गुजर चुके हैं नये रोगियों के लिए मनोवैज्ञानिक सलाहकार का कार्य कर सकते हैं, ताकि रोगी नैराश्य से निकल कर शीघ्र-अतिशीघ्र इस चुनौती का मुकाबला करने में सक्षम हो सके।
डा0 विद्यावती
रीडर, मनोविज्ञान विभाग
सेण्ट एण्ड्रयूज कालेज, गोरखपुर
न्यायिक सदस्य ‘किशोर न्याय बोर्ड’

मधुमेह -समस्या की प्रबलत

मधुमेह -समस्या की प्रबलता

दीर्घकालिक रोगों में जो समय के साथ शरीर के विभिन्न अंगों को क्षति पहुचातें है, मधुमेह प्रमुख है। यह एैसा रोग है जिसका तात्कालिक प्रभाव अधिकांश रोगियों में देखने को नहीं मिलता, और लम्बे समय तक पीड़ित व्यक्ति को इस बात का आभास नही होता कि वह इससे ग्रसित है और किसी शारीरिक अंग-यथा गुर्दे, आँख, हृदय आदि के प्रभावित होने के फलस्वरूप होने वाले लक्षण आने के पश्चात ही इस रोग का संज्ञान हो पाता है। संक्रामक रोगों पर नियंत्रण के पश्चात मधुमेह एक वैश्विक महामारी के रूप में उभर कर सामने आया है, जो तत्काल क्षति पहुचाने के बजाय एक दीमक की तरह आने वाले समय में हमारे मनुष्य जगत को खोखला करने वाला है। इसमें भी टाइप - 2 मधुमेह रोगियों की संख्या में सर्वाधिक इजाफा होने वाला है जो 30 वर्ष से उपर की आयु के लोगो को अपने चपेट में लेता है। यद्यपि कि पिछले कुछ वर्षो से अब 30 वर्ष से कम आयु के लोगों में भी टाइप - 2 रोगी मिलने लगें है और समस्या की प्रबलता घटने के बजाये बढ़ती जा रही है और यह अत्यन्त चिन्ता का विषय है। यही आयु मनुष्य का सर्वाधिक क्रियाशील और विभिन्न सामाजिक पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाला काल होता है निश्चय ही यह न केवल व्यक्ति के अपने कार्यक्षमता को क्षति पहुंचायेगा, वरन सरकार और देश के बहुमूल्य स्वास्थ सेवाओं और आर्थिक संसाधनो को भी निचोड़ेगा। बेहतर होती चिकित्सीय सुविधाओं से लोगों की औसत आयु पिछले 40 वर्षो में 59 वर्ष से बढ़कर 64 वर्ष हो गई है। मधुमेह के सन्दर्भ में इसका अर्थ होगा मधुमेह जनित जटिलताओं से पीड़ित जनसंख्या में वृद्धि और अपेक्षित संसाधनों में तुलनात्मक कमी।

इण्टरनेशनल डायबीटीज फेडेरेशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘डायबीटीज एटलस’ के तृतीय संस्करण के माध्यम से आइये देखते है कि इस समस्या की प्रबलता कितनी है यह सभी आकड़े 20 से 79 वर्ष के आयु के है। सन् 2007 के आंकड़े बताते है कि विश्व स्तर पर 24.6 करोड़ लोग (आबादी का 5.9%) मधुमेह से पीड़ित थे, जिनकी संख्या 2025 में बढ़ कर 38 करोड़ (आबादी का 7%) हो जायेगी। करीब करीब 55% की बढोत्तरी होगी।
सन् 1994 में अनुमान लगाया गया था कि 2010 में मधुमेह रोगियों की संख्या 23.9 करोड़ हो जायेगी जबकि 2007 में ही यह संख्या 24.6 करोड़ हो चुकी है, यानि कि हम तीन वर्ष पहले ही अनुमानित आंकड़े को पार कर चुके है, यह अत्यन्त चिन्तनीय है, भारत के सन्दर्भ में यदि हम देखें तो सन् 2007 में मधुमेह रोगियों की संख्या 4.65 करोड़ थी जो 2025 तक बढ़कर 8.83 करोड़ हो जायेगी। करीब-करीब 73% की बढ़ोत्तरी होगी। गौर तलब यह है कि जितने मधुमेह रोगी ज्ञात रूप में सामने होते हैं लगभग उतने ही लोग मधुमेह के कगार पर खड़े होते जिन्हे हम ‘प्री-डायबीटीज’ (Pre-Diabetes) की अवस्था कहते हैं। ‘‘प्री - डायबीटीक को हम आज की तारीख में मधुमेह के घोषित मानक के तत्काल पहले की अवस्था को कहते हैं। सामान्य तौर पर किसी स्वस्थ व्यक्ति का रक्त शर्करा खाली पेट जांच कराने पर 110 मिग्रा. से कम होना चाहिए और 75 ग्राम ग्लूकोज पीने के दो घंटे बाद 140 से कम होना चाहिए। यदि यह खाली पेट 126 या उससे अधिक और ग्लूकोज पीने के 2 घंटे बाद 200 या उससे अधिक हो तो उस व्यक्ति को मधुमेह रोग है। यदि यह खाली पेट 110 से अधिक और 126 के नीचे हो और ग्लूकोज के बाद 140 से 200 के बीच हो तो उसे हम बाधित ग्लूकोज निस्तारण (Impaired Glucose Tolerance; IGT) कहते हैं। एैसे व्यक्ति जो IGT के श्रेणी में आते है उनमें से करीब 70% आगे चलकर मधुमेह रोगी हो जाते है। सन 2007 में जहाँ मधुमेह रोगियों की संख्या 24.6 करोड़ थी वहीं IGT की संख्या 30.8 करोड़ थी। सन् 2025 में IGT की संख्या 41.8 करोड़ हो जायेगी। इस प्रकार यदि हम घोषित मधुमेह रोगियों एवं संभावित मधुमेह रोगियों (IGT) की संख्या जोड़ दें तो समस्या की प्रबलता और भी गंभीर हो जाती है।
यह अफसोस का विषय है कि सन् 1994 में 2010 के लिये जो भविष्यवाणी की गई थी उसे झुठलाने में हम नाकामयाब रहें। सन् 2025 के प्रस्तावित आकड़ो को यदि हमें झुठलाना है और चुनौती देनी है तो हमे गभीरंता पूर्वक आज के युवाओं को जिसकी उम्र 15 से 30 वर्ष के बीच है जागृत करना होगा, क्योकि 17 वर्ष बाद यही वर्ग 32 से 47 वर्ष की आयु में होगा और अधिकांश नये रोगी इसी वर्ग से सामने आयेंगें। अतः आज के बच्चों एवं युवाओं को हमे नियमित व्यायाम, उचित भोजन चयन, एवं जीवन शैली के प्रति न केवल जागरूक करना होगा, वरन सतत् निगरानी भी रखनी होगी और निरन्तर इस पर बल देना होगा। इस के लिये कई स्तर पर प्रयास करने होगें। जैसे पारिवारिक, शिक्षण संस्थाओं, कार्यालय आदि के माध्यम से हमें एक अभियान छेड़ना होगा जिसमें मीडिया की भूमिका भी अहम् होगी।
आइये अब हम यह देखते हैं कि मधुमेह किस प्रकार हमारे चिकित्सीय संसाधनो को चुनौती देगी-

  • मधुमेह रोगियों में मृत्यु दर दो गुनी अधिक है।
  • हृदय आघात की संभावना दो से चार गुनी अधिक है।
  • 17 – 20% रोगियों की मृत्यु 50 वर्ष से कम आयु में।
  • रोग होने के 20 वर्ष पश्चात लगभग सभी टाइप-1 मधुमेह रोगियो में और 60% से अधिक टाइप-2 मधुमेह रोगियों में आँख के पर्दे (रैटिना) में खराबी आ जाती है।
  • 86% टाइप-1 एवं 33% टाइप-2 मधुमेह रोगियों के अंधता का कारण रैटिना पैथी होती है।
  • टाइप - 2 मधुमेह रोगियों में 21% रोगियों को रोग का संज्ञान होने तक रैटिनोपैथी हो चुकी होती है
  • पैरों में सूनापन आने के कारण, पैरों में घाव, गैग्रीन एवं पैरो को कटने (Amputation) की दर में वृद्धि
  • 10-20 वर्ष के पश्चात् लगभग 30-50% टाइप-1 और 20 – 50% टाइप-2

मधुमेह रोगियों के गुर्दे में खराबी (Nephropathy) आ जाती है उन्हे ‘डायालिसिस’ और गुर्दा प्रत्यारोपण की आवश्यकता पड़ने लगती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आने वाले समय में अच्छी संख्या में हमारे पास गहन हृदय चिकित्सा केन्द्र, डायालिसिस केन्द्र, नेत्र सम्बन्धी उपचार हेतु उच्चीकृत नेत्र चिकित्सा केन्द्र, पैर चिकित्सा केन्द्र आदि की सुविधा की आवश्यकता पडेगी। केवल चिकित्सा सुविधाओं के उपलब्ध होने से भी काम नहीं चलेगा वरन रोगियों को पैसे भी खर्च करने पडे़गे। संसाधनों के आभाव में सरकारी चिकित्सालयों की जो वर्तमान स्थिति है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अच्छे सुविधायुक्त केन्द्रों पर रोगियों का कितना दबाव होगा।
कालान्तर में श्रम न करने की प्रवृत्ति और उच्च वसा एवं उर्जा युक्त भोजन की प्रचुरता के कारण मधुमेह रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है। जिस प्रकार साहित्य समाज का दर्पण होता है उसी प्रकार मधुमेह शहरीकरण, आद्यौगिकीकरण एवं आर्थिक विकास का दर्पण होता है यह कहने में अतिश्योक्ति न होगी।
समस्या की प्रबलता को देखते हुए बड़े पैमाने पर जन - जागरण अभियान की परम आवश्यकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुये डायाबिटीज सेल्फ केयर क्लब निरन्तर अपने मासिक बैठको के माध्यम से इस अभियान में लगा हुआ है और इस वर्ष ‘मधुमेह विजय’ नामक कार्यक्रम के माध्यम से विभिन्न स्कूलो में व्याख्यान एवं पोस्टर प्रतियोगिताओं के माध्यम से बच्चों के अन्दर इस रोग के प्रति जागरूकता अभियान चलाने जा रहा है। आइये हम सभी संकल्प ले कि इस गंभीर चुनौती से निपटने के लिये हम अपने प्रयासों में कोई कमी नही आने देंगें।
डा0 आलोक कुमार गुप्ता
एम0डी0

मधुमेहः इतिहास के झरोखे से

मधुमेहः इतिहास के झरोखे से
धुमेह रोग आज सबसे व्यापक रोग के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। शायद ही कोई होगा जो ‘डायबिटिज’, ‘मधुमेह’, ‘शुगर’ की बीमारी से अपरिचित हो। ऐसा भी नहीं कि यह बीमारी प्राचीन युग में नही थी। आइये वर्तमान इतिहास में झाँक कर देखें कि इस बीमारी के बारे में लोगों की जानकारी और धारणायें क्या थीं। इस हेतु हम इतिहास को तीन खण्डों में बाँट कर चलते हैं-

1. प्राचीन युग (600 ए.डी. तक)
इस बीमारी का लिखित प्रमाण 1550 ई.पू. का मिलता है। मिस्र में ‘पापइरस कागज’ पर इस बीमारी का उल्लेख मिलता है, जिसे जार्ज इबर्स ने खोजा था, अतः इस दस्तावेज को ‘इबर्स पपाइरस’ भी कहते हैं। दूसरा प्राचीन प्रमाण ‘कैपाडोसिया के एरीटीयस द्वारा दूसरी सदी का मिलता है। एरीटीयस ने सर्वप्रथम ‘डायाबिटिज’ शब्द का प्रयोग किया, जिसका ग्रीक भाषा में अर्थ होता है ‘साइफन’। उनका कहना था कि इस बीमारी में शरीर एक साइफन का काम करता है और पानी, भोजन, कुछ भी शरीर में नहीं टिकता ओर पेशाब के रास्ते से निकल जाता है, बहुत अधिक प्यास लगती है और शरीर का मांस पिघल कर पेशाब के रास्ते बाहर निकल जाता है। 400-500 ई.पू. के काल में भारतीय चिकित्सक चरक एवं सुश्रुत ने भी इस बीमारी का जिक्र अपने ग्रन्थों में किया है। संभवतः उन्होंने सर्वप्रथम इस तथ्य को पहचाना कि इस बीमारी में मूत्र मीठा हो जाता है। उन्होंने इसे ‘मधुमेह’ (शहद की वर्षा) नाम दिया। उन्होंने देखा कि इस रोग से पीड़ित व्यक्ति के मूत्र पर चीटियाँ एकत्रित होने लगती हैं। उन्होंने दो प्रकार के मेह की चर्चा की है-उदक (जल) मेह और इक्षु (गन्ना) मेह जिसे आजकल हम ‘डायबिटीज इनसीपीडस’ और ‘डायबिटिज मेलाइट्स’ के नाम से जानते हैं। इक्षु में दो प्रकार के मधुमेह रोगियों का वर्णन मिलता है-एक वह रोगी जो स्थूलकाय, अधिक खाने वाले, और शिथिल जीवन शैली जीने वाले आरामतलब प्रवृत्त्ति के होते हैं (आज के टाइप-2 रोगी) और दूसरे क्षीणकाय, बहुत अधिक पेशाब करने एवं पानी पीने वाले (आज के टाइप-1 रोगी)। लक्षणों में थकान, सुस्ती, शरीर में दर्द का वर्णन मिलता है। जटिलताओं में न सूखने वाले घाव (Carbuncle) एवं हाथ पैरों में जलन, का वर्णन मिलता है।
नया अन्न, गुड़, चिकनाई युक्त भोजन, दुग्ध पदार्थों का अत्यधिक सेवन, घरेलू जानवरों का मांस भक्षण, मदिरा सेवन एवं विलासपूर्ण जीवन शैली इस रोग के जनक होते हैं। अल्पाहार, शारीरिक श्रम, शिकार करके मांस भक्षण करना आदि उपाय बताये गये हैं। आप कहेंगे कि यह बातें आज भी उतनी ही सत्य है। फर्क इतना है तब पैनक्रियाज एवं इंसुलिन की जानकारी नहीं थी। एरीटीयस एवं गेलन समझते थे विकार गुर्दों में आ जाता है, और यह विचार करीब 1500 वर्षों तक कायम रहा।
2. मध्य-युगीन काल (600-1500 ए.डी.)
इस काल में मुख्य रूप से रोग के लक्षणों का और विस्तार से वर्णन मिलता है। चीन के चेन-चुआन (सातवीं सदी) और अरबी चिकित्सक एवीसेना (960-1037 ए.डी.) ने गैंग्रीन एवं यौनिक दुर्बलता का जिक्र जटिलताओं के रूप में किया है।
3. आधुनिक काल (1500-2004 ए.डी.)
इस काल में रोग के जानने के लिए तमाम प्रयास शुरू हुए। थामस विलिस (1674-75 ए.डी.) ने पुनः मूत्र के मीठेपन को उजागर किया। किन्तु इस मिठास का कारण शर्करा को न मान कर किसी और तत्व को माना। करीब सौ साल बाद 1776 में मैथ्यू डॉबसन ने मधुमेह रोगी के मूत्र को आँच पर वाष्पित कर भूरे चीनी जैसा तत्व अलग किया। उन्होंने यह भी पाया कि रक्त सीरम भी मीठा हो जाता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कलेन (1710-90) ने डायबिटिज में ‘मेलाइटस’ शब्द को जोड़ा। ‘मेल’ का अर्थ ग्रीक भाषा में शहद होता है। इस प्रकार एरीटीयस द्वारा दिये गये शब्द ‘डायबिटिज’ (साइफेन) एवं कलेन द्वारा दिये गये शब्द ‘मेलाइटस’ के संगम से, दो हजार वर्षों से अधिक काल के बाद इस बीमारी का वर्तमान नाम ‘डायबिटिज मेलाइटस’ वजूद में आया।
1850-1950 तक का काल काफी महत्वपूर्ण काल माना जाता है। इस काल में लोगों को वैज्ञानिक सोच में व्यापक बदलाव आया और रोग के मूल कारण को जानने के तीव्र प्रयास हुए। यह दौर ‘प्रयोगिक-विज्ञान का दौर था। तथ्यों एवं परिकल्पनाओं को प्रयोगशालाओं में प्रमाणित करके उसे सत्यापित करने के प्रयास शुरू हुए। 1879 में पॉल लैंगर हेन्स ने सर्वप्रथम अपने शोधपत्र में पैनक्रियाज ग्रन्थि के कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं का जिक्र किया जो छोटे-मोटे द्वीप-समूहों में बिखरे रहते हैं।
वॉन मेरिंग एवं मिनकोविस्की ने सन् 1889 में दो कुत्तों का पैनक्रियाज ग्रन्थि शल्य क्रिया द्वारा निकाल दिया। अगले ही दिन उन्होंने पाया कि कुत्तों में मधुमेह के लक्षण (बहुमूत्र) उत्पन्न हो गये और उनके मूत्र परीक्षण में शर्करा पाया गया। इस प्रकार वह यह साबित करने में सफल हुए कि मधुमेह का सम्बन्ध गुर्दों से न होकर पैनक्रियाज ग्रन्थि से है। उन्होने देखा कि यदि पैनक्रियाज ग्रन्थि का टुकड़ा स्थापित कर दिया जाये तो जब तक यह टुकड़ा जीवित रहता है, मधुमेह के लक्षण गायब हो जाते हैं। आगे चल कर लैग्यूसे ने यह विचार दिया कि पैनक्रियाज ग्रन्थि में लैंगरहेन्स द्वारा वर्णित कोशिकायें किसी ऐसे तत्व का स्राव करती हैं जो रक्त में शर्करा को नियंत्रित करता है। बाद में जीन-डी0 मेयर ने इस तत्व का नाम ‘इंसुलिन’ रखा।
इस इन्सुलिन नामक तत्व को पैनक्रियाज से अलग करने के प्रयास में कई वैज्ञानिक समूह लगे हुए थे। अन्ततः कनाडा के हड्डी रोग विशेषज्ञ फ्रेडरिक बैटिंग, टोरंटो विश्वविद्यालय के क्रिया-विज्ञान के प्रोफेसर जे0 जे0 आर मैकलियाड, मेडिकल छात्र चाल्र्स बेस्ट एवं बॉयोकेमिस्ट जेम्स कॉलिप ने 1921 में इसमें सफलता पाई। पैनक्रियाज ग्रन्थि द्वारा निकाले गये इस पहले निचोड़ को 11 जनवरी 1922 को लीयोनार्ड थाम्पसन नामक रोगी को दिया गया। इसके बाद इन्सुलिन को शुद्ध और परिष्कृत करने का दौर चला और आज हमें जिनेटिक इन्जीनियरिंग द्वारा ‘मानव इन्सुलिन’ उपलब्ध है।
एक बार इन्सुलिन की जानकारी होने के पश्चात्, शरीर द्वारा इसके निर्माण, नियंत्रण, कार्यविधि, आदि पर तमाम शोधकार्य शुरू हुए और आज भी जारी है। इन शोधों के फलस्वरूप पैनक्रियाज ग्रन्थि पर कार्य कर इंसुलिन का स्राव कराने वाली दवायें, इंसुलिन रिसेप्टर एवं उन पर कार्य करने वाली दवाओं का अविष्कार किया गया। इन दवाओं के पहले इलाज का एकमात्र रास्ता भोजन में व्यापक फेरबदल एवं शारीरिक श्रम था और इनके निष्प्रभावी होने पर धीरे-धीरे घुल कर मरने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता नहीं होता था। अब यदि जीवन शैली परिवर्तन एवं भोजन परिवर्तन के बाद मधुमेह नियंत्रण में नहीं आता है तो हमारे पास तमाम दवायें हैं और जब वह भी निष्प्रभावी हो जाती हैं तो रामबाण के रूप में हमारे पास इंसुलिन होता है जो कभी विफल नहीं होता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि करीब पिछले साढ़े तीन हजार साल से मनुष्य ने इस बीमारी पर विजय पाने के लिये कितने प्रयास किये हैं।

मधुमेह- कुछ संभावित प्रश्न

मधुमेह- कुछ संभावित प्रश्न


प्रश्न: मधुमेह क्या है ?

उत्तर: रक्त में ग्लूकोज की मात्रा यदि एक निर्धारित सीमा से अधिक हो जाये तो उसे मधुमेह रोग (डायबिटिज) कहते हैं। रक्त में ग्लूकोज की मात्रा की मानक सीमा इस प्रकार है-

अवस्था

खाली पेट रक्त ग्लूकोज

75 ग्राम ग्लूकोज पीने के 2 घण्टे बाद

मधुमेह≥ 126 मिग्रा. %≥ 200 मिग्रा. %
ग्लूकोज नियंत्रण में कमी≥ 110 मिग्रा. और < 126 मिग्रा.≥ 140 मिग्रा. और < 200 मिग्रा.
सामान्य< 110 मिग्रा. %< 140 मिग्रा. %

प्रश्नः रक्त में ग्लूकोज क्यों बढ़ जाता है ?
उत्तरः मधुमेह रोग में शरीर में इन्सुलिन आवश्यकता से कम बनने लगता है, एवं इन्सुलिन रिसेप्टर शिथिल पड़ने लगते हैं। फलस्वरूप ग्लूकोज समुचित रूप से जल कर ऊर्जा में परिवर्तित नहीं हो पाता, इस कारण ग्लूकोज रक्त में बढ़ जाता है।
प्रश्नः ब्लड शुगर एवं मूत्र शुगर क्या अलग-अलग बीमारियाँ हैं ?
उत्तरः मूल बीमारी रक्त में ग्लूकोज (शुगर) का बढ़ना होता है। जब रक्त ग्लूकोज एक सीमा से अधिक बढ़ जाता है तो शरीर उससे छुटकारा पाने के लिए गुर्दों के माध्यम से मूत्र में त्यागना शुरू कर देता है। मूत्र में ग्लूकोज का न होना मधुमेह रोग न होने का प्रमाण नहीं है।
प्रश्नः क्या यह समयबद्ध रोग है?
उत्तरः नहीं! यह जीवन भर का रोग है।
प्रश्नः बढ़े रक्त ग्लूकोज से क्या हानि है? इसे नियंत्रित करना क्यों आवश्यक है?
उत्तरः बढ़ा हुआ रक्त ग्लूकोज रक्त की रासायनिक गुणवत्ता को प्रभावित करता है। बढ़ा हुआ ग्लूकोज रक्त नलियों की भीतरी दीवार की कोशिकाओं को धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त करता है। इस प्रक्रिया में रोगी को किसी प्रकार का दर्द अथवा कष्ट नहीं होता और वह इससे बेखबर रहता है। एक सीमा से अधिक क्षति होने पर नाजुक अंगों यथा- आंख के पर्दे, हृदय, मस्तिष्क के कार्य प्रभावित होने लगते हैं, और तब रोगी को इसका आभास होता है और वह चेतता है, किन्तु तब तक काफी देर हो चुकी होती है। यदि रक्त ग्लूकोज को निर्धारित सीमा के अन्दर नियंत्रित न रखा जाए तो यह शरीर के प्रत्येक अंग को प्रभावित करता है-शारीरिक कष्ट हो अथवा नहीं।
प्रश्नः इसके लक्षण क्या होते हैं ?
उत्तरः इसके निम्न लक्षण हो सकते हैं-
  1. थकान, कमजोरी, पैरों में दर्दः क्योंकि ग्लूकोज ऊर्जा में परिवर्तित नहीं हो पाता है।
  2. जननांगों में खुजली एवं संक्रमण।
  3. बार-बार चश्में का पावर बदलना।
  4. बार-बार गर्भपात होना या सामान्य से अधिक वजन का बच्चा होना।
  5. हृदय आघात, मस्तिष्क आघात का होना।
  6. गुर्दों का निष्क्रिय होना।
  7. पैर का घाव ठीक न होना एवं गैग्रीन का रूप ले लेना।
  8. अधिक पेशाब एवं भूख का लगना तथा तेजी से वजन का गिरना।
  9. प्रारम्भिक अवस्था में कोई लक्षण न होना।

प्रश्नः मधुमेह नियंत्रण का क्या मतलब है ?
उत्तरः रक्त ग्लूकोज को सामान्य के आस-पास रखना चाहिए। विभिन्न वैज्ञानिक शोधों से यह निर्विवादित रूप से सिद्ध हो चुका है कि यदि रक्त ग्लूकोज को नियंत्रित रखा जाये तो इस रोग से होने वाले विभिन्न जटिलताओं से लंबे अरसे तक बचा जा सकता है।
प्रश्नः चिकित्सा का उद्देश्य क्या है ?
उत्तरः चिकित्सा के निम्नलिखित उद्देश्य है:
  1. लाक्षणिक आराम
  2. जटिलताओं में कमी, तथा
  3. अंत तक क्रियाशील जीवन

प्रश्नः चिकित्सा के क्या उपाय हैं ?
उत्तरः मधुमेह चिकित्सा के लिए हमारे पास पांच हथियार हैं:
  1. भोजन
  2. व्यायाम
  3. औषधियां
  4. शिक्षा
  5. नियमित जांच

प्रश्नः मधुमेह रोगी को किस तरह का भोजन लेना चाहिए ?
उत्तरः मधुमेह रोगी का भोजन ऐसा होना चाहिए जो रक्त ग्लूकोज को बढ़ाने से रोके एवं रोग पर अनुकूल प्रभाव डाले। भोजन पौष्टिक होना चाहिए जिसमें कार्बोहाइड्रेट एवं रेशे, प्रचुर मात्रा में हों। भोजन की मात्रा भी शारीरिक श्रम के अनुसार नियंत्रित होना चाहिए।
प्रश्नः व्यायाम ?
उत्तरः यूँ तो व्यायाम की महत्ता स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी है, किन्तु मधुमेह रोग में इसकी विशेष भूमिका होती है। व्यायाम करने से शरीर का वजन कम होता है, पैरों में रक्त का संचार बढ़ता है, हृदय पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और रक्त ग्लूकोज को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। इन सबसे ऊपर आत्म विश्वास बढ़ता है।
प्रश्नः मधुमेह रोग में दवाओं की क्या भूमिका है ?

उत्तरः सबसे पहले यह अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि दवायें, भोजन एवं व्यायाम का विकल्प नहीं है। दवाओं के नम्बर सदैव इनके बाद आता है। चूंकि मधुमेह रोग शरीर की इन्सुलिन की कमी के कारण है, अतः यदि किसी प्रकार इन्सुलिन की मात्रा बढ़ाई जा सके तो इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। रोगी को सीधे इन्सुलिन दिया जा सकता है, किन्तु यह केवल ‘सूई’ के रूप में ही उपलब्ध है। इन्सुलिन की मात्रा को बढ़ाने का दूसरा तरीका खाने की दवायें हैं।
प्रश्नः मधुमेह रोगी को किस-किस जांच की आवश्यकता होती है ?
उत्तरः रक्त में बढ़ा हुआ ग्लूकोज पूरे शरीर को प्रभावित करता है, अतः प्रारम्भिक अवस्था में पूरे शरीर की जांच कराना आवश्यक होता है, जिसमें रक्त ग्लूकोज, ग्लाइकोसाइलेटेड हीमोग्लोबिन, रक्त वसा, मूत्र परीक्षण, हृदय, नेत्र परीक्षण इत्यादि जांच कराये जाते हैं।
प्रश्नः रक्त ग्लूकोज के जाँच में किन बातों का ध्यान रखा जाये ?
उत्तरः रक्त ग्लूकोज के जाँच में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जायेः
  1. एक बार दवा की मात्रा का निर्धारण हो जाये तब हर एक-दो माह पर रक्त ग्लूकोज का परीक्षण, खाली पेट और भोजन के दो घण्टे के पश्चात् कराना चाहिए।
  2. जिस दिन जाँच कराना हो उस दिन की दिनचर्या अन्य दिनों की भांति होनी चाहिए।
  3. दवा का सेवन उस दिन भी करना चाहिए।

प्रश्नः हाईपोग्लासीमिया क्या होता है ?
उत्तरः रक्त में ग्लूकोज की मात्रा एक सीमा से कम होने लगे (50 मिग्रा प्रतिशत) तो उसे हाईपोग्लाइसीमिया कहते हैं। इस अवस्था में रोगी का मस्तिष्क ठीक ढंग से काम नहीं करता है, उसे घबराहट, बेचैनी, पसीना होने लगता है। रोगी के आस-पास के लोगों को लगता है कि रोगी ने कोई नशा कर रखा है। ऐसी हालत में तत्काल ग्लूकोज या शर्करायुक्त भोजन न दिया जाये तो रोगी बेहोश हो जाता है, और दिमाग अपूर्णीय रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है। अतः मधुमेह रोगियों के दवा की मात्रा अपने आप नहीं घटाना-बढ़ाना चाहिए और न ही बिना डाक्टरी सलाह के उपवास रखना चाहिए। याद रखें मधुमेह रोग दीर्घकालिक रोग है और इसके नियंत्रण में आपकी भूमिका सर्वाधिक है। सुनी सुनाई बातों पर न जाकर अपनी हर शंका का समाधान अपने चिकित्सक से करें और दीर्घकालिक क्रियाशील जीवन जीयें।
प्रश्नः इन्सुलिन का इंजेक्शन कब दिया जाता है ?
उत्तरः इन्सुलिन की आवश्यकता रोगी को दो अवस्थाओं में होती है। पहली अवस्था वह होती है जब खाने की दवायें अपने अधिकतम खुराक में भी प्रभावी नहीं रहती है, यानी की पैंक्रियास ग्रन्थि लगभग पूर्ण रूप से काम करना बंद कर देती है। ऐसी अवस्था में रोगी को जीवनपर्यन्त इन्सुलिन लेना पड़ता है। दूसरी अवस्था वह होती है, जहां रोगी का रक्त ग्लूकोज खाने की गोलियों या भोजन व्यायाम के माध्यम से नियंत्रण में रहता है, किन्तु कुछ ऐसे कारण उत्पन्न हो जाते हैं जब शरीर को अधिक इन्सुलिन की आवश्यकता पड़ती है, यथा शल्य क्रिया, गर्भावस्था, संक्रामक रोग इत्यादि। ऐसी अवस्था में रोगी को कुछ समय के लिए इन्सुलिन दिया जाता है और उस अवस्था के समाप्त होने पर रोगी पुनः खाने की दवा पर चला जाता है।
प्रश्नः एक बार इन्सुलिन सूई लें तो सदैव इन्सुलिन की सूई लेने की आदत पड़ जाती है। यह कहां तक सत्य है ?
उत्तरः यदि शरीर को किसी चीज की आवश्यकता है तो उसे शरीर को देना पड़ेगा अन्यथा शरीर सुचारू रूप से कार्य नहीं करेगा। जैसे शरीर के लिए भोजन एक अनिवार्यता है तो हम नियमित भोजन करते हैं और कभी यह प्रश्न नहीं करते हैं कि हमें भोजन की आदत पड़ जायेगी, उसी प्रकार यदि शरीर अपनी आवश्यकता के अनुसार समुचित इन्सुलिन का निर्माण नहीं कर पाता तो उसे बाहर से देना पड़ेगा इसमें आदत पड़ने जैसी कोई बात नहीं है।
प्रश्न: भोजन शरीर के लिए क्यों आवश्यक है ?
उत्तर: हमारा शरीर एक मशीन है, जिससे हम विभिन्न कार्य लेते हैं। किसी भी कार्य को करने के लिये ऊर्जा (Energy) की आवश्यकता होती है और ऊर्जा के लिये ईंधन की। भोजन ईंधन का काम करता है। शरीर रूपी मशीन में हुई टूट-फूट की मरम्मत के लिए भी भोजन की आवश्यकता होती है। मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान होते हैं। बिना भोजन के कोई भी जीव लम्बे काल तक जीवित नहीं रह सकता। हमें क्या और कितना खाना चाहिए, यह जानना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है, क्योंकि अधिकांश बीमारियां गलत आहार के कारण उत्पन्न होती हैं।
प्रश्न: भोजन के मुख्य घटक क्या होते हैं और उनकी क्या महत्ता है ?
उत्तर: भोजन के निम्न घटक होते हैं:-
  1. कार्बोहाइड्रेट - ऊर्जा का मुख्य स्रोत।
  2. प्रोटीन - शरीर की कोशिकाओं के निर्माण में सहायक।
  3. वसा - शरीर की कोशिकाओं के निर्माण में सहायक, हार्मोन का निर्माण एवं संचित ऊर्जा का स्रोत
  4. विटामिन, खनिज, लवण - शरीर के विभिन्न रसायनिक एवं शारीरिक क्रियाओं में सहायक।

प्रश्न: कैलोरी क्या होती है?
उत्तर: कैलोरी ऊर्जा का माप है। हम शारीरिक श्रम में जो ऊर्जा खर्च करते हैं या भोजन से जो ऊर्जा प्राप्त करते हैं उसे कैलोरी कहते हैं।
प्रश्न: किसी व्यक्ति को कितनी ऊर्जा की आवश्यकता है, इसका निर्धारण कैसे करते हैं?

उत्तर: सबसे पहले यह ज्ञात करते हैं कि उस व्यक्ति का आदर्श वजन कितना होना चाहिए।
आदर्श वजन:
पुरूष: कद (सेमी. में) - 105 = वजन किग्रा. में
स्त्री : कद (सेमी. में) - 107 = वजन किग्रा. में
उदाहरण के लिए किसी पुरूष का कद 170 सेमी. है तो उसका आदर्श भार=170-105=65 किग्रा. होना चाहिए। इसके पश्चात् शरीर के लिये मूलभूत (Basic) ऊर्जा की आवश्यकता निकालते हैं। अब यदि व्यक्ति शिथिल जीवन शैली जीता है तो मूलभूत आवश्यकता का एक बटे तीन, यदि औसत जीवन शैली जीता है तो एक बटे दो और यदि अत्यधिक श्रम करता है तो उतनी ऊर्जा और उसमें जोड़ देते हैं।
उदाहरण के लिए व्यक्ति का जीवन 70 किलो है तो:-
उसकी मूलभूत आवश्यकता 70 x 22 = 1540 कैलोरी
शिथिल जीवन शैली 1540 + (1540/3) = 2055 कैलोरी
साधारण जीवन शैली 1540 + (1540/2) = 2310 कैलोरी
अत्यधिक श्रमयुक्त जीवन शैली 1540 + 1540 = 3080 कैलोरी
यदि व्यक्ति आदर्श भार से अधिक वजन का है तो उसे उपरोक्त विधि से निकाली गई ऊर्जा से कम ऊर्जा का भोजन देते हैं, ताकि शरीर में संचित ऊर्जा खर्च की जा सके।

प्रश्न: भोजन में कैलोरी की मात्रा का निर्धारण होने के पश्चात् विभिन्न घटकों से कितनी ऊर्जा ली जाये, इसका क्या अनुपात होना चाहिए?

उत्तर: भोजन में ऊर्जा के साथ-साथ विभिन्न घटकों के अनुपात को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है। भोजन में 60-65 प्रतिशत ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट, 15-20 प्रतिशत प्रोटीन एवं 15-20 प्रतिशत वसा से प्राप्त होनी चाहिए। भोजन में रेशे की मात्रा समुचित होनी चाहिए, इस के लिए चोकर युक्त आटा, हरी सब्जी, सलाद एवं सम्पूर्ण फल का सेवन करना चाहिए।

विश्व मधुमेह दिवस 14 नवम्बर

विश्व मधुमेह दिवस 14 नवम्बर
निरन्तर मधुमेह रोगियों की संख्या में हो रही वृद्धि को देखते हुए 1991 में इण्टरनेशनल डायबिटीज फेडेरेशन एवं “विश्व स्वास्थ्य संगठन” ने संयुक्त रूप से इस बीमारी के प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु प्रति वर्ष “विश्व मधुमेह दिवस” आयोजित करने का विचार किया। इस हेतु उन्होने 14 नवम्बर का दिन चयनित किया। आप पूछ सकते हैं कि 14 नवम्बर ही क्यों?

मधुमेह रोग के कारण एवं इसके विभिन्न पहलुओं को समझने हेतु कई लोग प्रयासरत थे। इनमें से एक जोड़ी फ्रेडरिक बैटिंग एवं चार्ल्स बेस्ट की भी थी, जो पैनक्रियाज ग्रन्थि द्वारा स्रावित तत्व के रसायनिक संरचना की खोज में लगे हुए थे। इस तत्व को अलग कर उन्होंने अक्टूबर 1921 में प्रदर्शित किया कि यह शरीर में ग्लूकोज निस्तारण करने में अहम् भूमिका निभाता है और इसकी कमी होने से मधुमेह रोग हो जाता है। इस तत्व को “इंसुलिन” का नाम दिया गया। इसकी खोज मधुमेह के इतिहास में एक मील का पत्थर है। इस कार्य हेतु इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
14 नवम्बर फ्रेडिरिक बैटिंग का जन्म दिवस है। अतः “विश्व मधुमेह दिवस” हेतु इस तिथि का चयन किया गया। प्रारम्भ में “विश्व मधुमेह दिवस” हेतु “यिन और याँग” को प्रतीक चिन्ह के लिये चुना गया था। चीनी संस्कृति में “यिन और याँग” को द्वैतवात के अनुसार प्रकृति में संतुलन का प्रतीक माना जाता है। यह पहचान चिन्ह इस बात की ओर इंगित करता है कि इस बीमारी पर समुचित लगाम कसने हेतु रोगी, चिकित्सक, सामाजिक जागरूकता आदि विभिन्न तत्वों के बीच संतुलन होना आवश्यक है।
“इण्टरनेशनल डायबिटीज फेडेरेशन” के सतत् प्रयास के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्ततः मधुमेह की चुनौती को स्वीकारा और दिसम्बर 2006 में इसे अपने स्वास्थ कार्यक्रमों की सूची में शामिल किया। सन् 2007 से अब यह संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के सूची में शामिल होने का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि अब संयुक्त राष्ट संघ के सदस्य देश अपनी स्वास्थ संबंधी नीति-निर्धारण में इसे महत्व दे रहें हैं।
सन् 2007 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस दिवस को अंगीकार करने के बाद इस का प्रतीक चिन्ह “नीला छल्ला” चुना गया है। छल्ला या वृत्त, निरंतरता का प्रतीक है। वृत्त इस बात का प्रतीक है विश्व के सभी जन इस पर काबू पाने के लिये एकजुट हो। नीला रंग आकाश, सहयोग और व्यापकता का प्रतीक है। इस प्रतीक चिन्ह के साथ जो सूत्र वाक्य दिया गया है वह है। Unite for Diabetes मधुमेह के लिए एकजुटता।
प्रत्येक वर्ष, “विश्व-मधुमेह दिवस” किसी एक केन्द्रीय विचार पर बल देता है। वर्ष 2008 का विचार “Diabetes and Children” “मधुमेह एवं बच्चे” था। बच्चों में मधुमेह टाइप - 1 एवं टाइप - 2 दोनो प्रकार के हो सकते है।
बच्चों में मुख्यतः टाइप - 1 मधुमेह होता है, जिसके चिकित्सा के लिए जीवन पर्यन्त इंसुलिन लेना होता है। कई बार इससे पीड़ित बच्चें के लक्षणों को न पहचान पाने के कारण उनकी मौत, डायाबिटीक कोमा में हो जाती है। बिमारी के निदान होने के बाद भी आर्थिक और अन्य कारणों से इन बच्चों को समुचित चिकित्सा नहीं मिल पाती। बदलते जीवन शैली और ठोस, उच्च उर्जा युक्त भोजन की प्रचुरता के कारण बच्चों में मोटापे की प्रवृत्ति इधर बहुत तेजी से बढ़ रही है। अमेरिकी आंकड़े बताते हैं कि 7-15 वर्ष की आयु वर्ग के बीच मोटापे की दर में 1985 से 1997 के बीच दो से चार गुनी वृद्धि हुई है। भारत में तमिलनाडु में डा. रामचन्द्रन द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण में 13-18 वर्ष के बच्चो में 18% में मोटापा पाया गया। बच्चों में बढ़ते मोटापे की प्रवृति एवं शारीरिक श्रम में कमी के कारण अब टाइप-2 मधुमेही बच्चे भी बड़ी संख्या में देखने को मिल रहें हैं। इन्ही बातों को संज्ञान में लेते हुए वर्ष 2008 विश्व मधुमेह दिवस का केन्द्रीय विचार “Diabetes and Children” “बच्चे और मधुमेह” दिया गया । वर्ष 2008-09 में डायबिटीज सेल्फ केयर क्लब ने बच्चों को केन्द्रित कर वर्ष भर के लिये एक अभियान शुरू किया था जिसका नाम “मधुमेह विजय” दिया गया। इस अभियान के तहत प्रति माह विभिन्न स्कूलों में बच्चों एवं अध्यापको को इस बिमारी के प्रति जागरूक करने, स्वस्थ भोजन, जीवन शैली एवं व्यायाम की महत्ता समझाने के लिये व्याख्यान किये गये और पोस्टर एवं स्लोगन प्रतियोगिता के माध्यम से बच्चों के सृजनात्मक सोच को विकसित किया गया।

किसी भी दीर्धकालिक व्याधि के साथ सफलतापूर्वक स्वस्थ जीवन जीने के लिये उचित चिकित्सा

मिशन एवं उद्देश्य
किसी भी दीर्धकालिक व्याधि के साथ सफलतापूर्वक स्वस्थ जीवन जीने के लिये उचित चिकित्सा के साथ उस व्याधि के बारे में सम्पूर्ण जानकारी परम् आवश्यक है। प्रिय मधुमेही बन्धुओं मधुमेह विषय पर इन्टरनेट पर विभिन्न वेब-साइट उपलब्ध है परन्तु हिन्दी में यह पहला वेब-साइट आपकी सुविधा एवं ज्ञान - वर्धन के लिये लाँच किया गया है। डा0 आलोक कुमार गुप्ता, चिकित्सक डायबिटीज एजुकेशन एवं रिसर्च सेंन्टर एवं चिकित्सीय सलाहकार ‘डायबिटीज सेल्फकेयर क्लब’ के द्वारा आप सभी का अभिवादन एवं इस वेबसाइट पर स्वागत है।

बन्धुओं 1983 में बी0आर0डी0 मेडिकल कालेज गोरखपुर, उत्तर - प्रदेश, भारत से मेडिसिन में स्नातकोत्तर (एम0डी0) की डिग्री लेने के पश्चात मैंने निजी चिकित्सक के तौर पर कार्य करना शुरू किया। समय के साथ मैने महसूस किया मधुमेह रोगियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। आप सभी जानते एवं महसूस करते होंगे कि दवाओं के अतिरिक्त भोजन, व्यायाम, कौन से जाँच कब और क्यों करायें, कितने अन्तराल पर करायें आदि तमाम ऐसी बाते होती हैं जिनकी व्यापक जानकारी हर मधुमेही को होनी चाहिए। मैने पाया कि वर्षों से मधुमेही रोगी लोगों को इस बीमारी की मूलभूत जानकारी भी नहीं होती, यहाँ तक कि सामान्यतः उनका रक्त शर्करा कितना होना चाहिए इस की भी जानकारी नहीं होती। एक या दो रक्त शर्करा रिपोर्ट सामान्य आते ही अधिकांश लोग दवायें बन्द कर देते हैं और फिर वर्षों जाँच नही कराते।
पश्चिमी देशों में चिकित्सक का कार्य एक सुपरवाइजर की तरह होता है। वह चिकित्सीय प्लान बनाता है, दवाओं की मात्रा निर्धारित करता है और समय - समय पर उसकी समीक्षा कर उसमें आवश्यक परिवर्तन करता है। बाकी कार्यो तथा भोजन, व्यायाम, इंसुलिन कैसे ले एवं दिन - प्रतिदिन आने वाली समस्या के लिये ‘‘डायाबिटीज एजूकेटर’’ होते है। उनके साथ रोगी बैठ कर विस्तृत चर्चा करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक से सम्पर्क करते है। भारतवर्ष में यह सभी कार्य चिकित्सक को ही करने पड़ते हैं। यदि एक रोगी से विस्तारपूर्वक यह सभी बाते बताई जाये तो एक घंटे का समय लगता है, और व्यहवारिक तौर पर यह संभव नहीं हो पाता, न रोगी न ही चिकित्सक इतना समय देने की स्थित में होते हैं।
इस समस्या के समाधान हेतु मैने अपने क्लीनिक पर माह में एक दिन ‘मधुमेह क्लीनिक’ करना शुरू किया। उस दिन तीन घंटे के ‘शिक्षा सत्र’ में सभी नये पंजीकृत रोगियों को मधुमेह की मूलभूत जानकारी दी जाती है। इसके काफी सकारात्मक परिणाम सामने आये। धीरे - धीरे मैने महसूस किया कि इस शिक्षा - अभियान का क्षेत्र और विस्तृत किया जाये। सन 2003 में कुछ उत्साही मधुमेह बन्धुओं के सहयोग से यह सपना भी साकार हुआ। दवा व्यवसायी श्री नीरज तिवारी, शामियाना व्यवसायी श्री कमल चैरसिया एवं श्री विनय श्रीवास्तव, वेदानन्द दूबे, धनश्याम प्रसाद श्रीवास्तव, डा0 विद्यावती के सक्रिय सहयोग से सन् 2003 में ‘डायाबिटीज सेल्फ केयर क्लब’ गोरखपुर की स्थापना हुई। अपनी स्थापना से निरन्तर यह क्लब हर माह के प्रथम रविवार को सतत् मधुमेह जनचेतना कार्यक्रम के अन्तर्गत व्याख्यान का आयोजन करता है, जिसमें विभिन्न विषयों यथा भोजन, व्यायाम, दवायें, नेत्र, गुर्दे, पैरो की देखभाल, कौन से जॉंच कब और क्यों करायें पर विशेषज्ञों का व्याख्यान कराया जाता है। 14 नवम्बर ‘विश्व मधुमेह दिवस’ पर विशेष व्याख्यान एवं ‘ग्लोबल डायबिटीज वाक’ का आयोजन किया जाता है। क्लब की गतिविधि को देखते हुए कालान्तर में फ्रीमेंसनरी संस्था लॉज वॉलैस - 99 एवं सहारा वेलफेयर फाउन्डेशन जैसी संस्था ने भी हाथ मिलाया हैं। मधुमेह के प्रति जागरूकता के लिये स्कूल, कालेज एवं विश्वविद्यालय में व्याख्यान एवं पोस्टर प्रतियोगिता का भी आयोजन पिछले वर्ष किया गया।
क्लब की गतिविधि की महत्ता एवं सफलता को देखते हुए ‘इंडिया टूडे’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने अपने 21 सितम्बर 2005 के हिन्दी अंश में इस पर लेख प्रकाशित किया है। उत्तर - प्रदेश डायविटीज एसोसियेसन ने 2007 में मेरे इस सामाजिक अभियान को देखते हुए फैलोशिप एवार्ड प्रदान किया।
इस जन-जागरूकता को और व्यापक स्वरूप देने हेतु इस वर्ष (2009) 14 नवम्बर को इस हिन्दी वेबसाईट को लॉंच किया जा रहा है। इस साइट का मुख्य उद्देश्य मधुमेह से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर सरल एवं सुबोध तरीके से जानकारी देना है।
अभी इस वेबसाईट का शैशवकाल है। हमारा पूरा प्रयास होगा कि समय के साथ इसे और समृद्ध किया जाये। आप का सक्रिय सहयोग इस दिशा में उत्प्रेरक भी तरह कार्य करेगा। आशा है कि आप अपना अमूल्य सुझाव हमें निरन्तर भेजते रहेगें।

मधुमेह और सेक्स जीवन

मधुमेह और सेक्स जीवन
धुमेह (Blood Sugar) के रोगियों में सेक्स या जननेन्द्रिय सम्बन्धी समस्याओं की संभावना अधिक होती है। यह आश्चर्य का विषय है कि भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मधुमेह के रोगियों में सेक्स सम्बन्धी समस्याओं पर न तो मरीजों ने और न ही चिकित्सकों ने ही विशेष ध्यान देने की जरूरत महसूस की है। मधुमेह के रोगियों में पुरूषों की समस्याओं अलग होती है और महिलाओं की अलग।

  1. लिंग में पर्याप्त तनाव का आना (Erectile Dysfunction) सामान्य व्यक्तियों की तुलना में मधुमेह के रोगियों में यह समस्या से 15 साल पहले आने की संभावना होती है। सामान्य व्यक्तियों में यह समस्या 15 फीसदी की होती है, जबकि मधुमेह के रोगियों में यह समस्या 45 से 55 प्रतिशत होती है।
  2. लिंग में पर्याप्त तनाव न आने के मुख्यतः दो कारक होते हैं-एक स्नायु सम्बन्धी (Nerves Neuropathy), दूसरा रक्त नलिका सम्बन्धित।
  3. मधुमेह के रोगियों में आम व्यक्ति की तुलना में उच्च रक्तचाप की संभावना 30 फीसदी अधिक होती है। लिंग में पर्याप्त कड़ापन न आने की वजह उच्च रक्तचाप भी हो सकती है।
  4. कुछ दवाओं की वजह से भी लिंग में तनाव न आना (Erectile Dysfunction) हो सकती है।
  5. महिला मधुमेह रोगियों की योनि में सेक्स के दौरान चिकने पदार्थ का स्राव न होने के समस्या हो सकती है, जिससे सेक्स (Inter Course) के दौरान दर्द हो सकता है।

सेक्स सम्बन्धी सावधानियां:

  1. मधुमेह के रोगी अपने जननांगों की पर्याप्त सफाई रखें।
  2. शारीरिक संबंध बनाने से पहले खासकर महिलायें मूत्र त्याग जरूर कर लें।
  3. सेक्स के दौरान एक दूसरे का भरपूर सहयोग करें और प्रोत्साहन दें।
  4. ऐसी औषधियां न लें, जो इस पर प्रभाव डाल सकती हैं।
  5. रक्तचाप को नियंत्रण में रखें।
  6. शराब एवं तम्बाकू का सेवन न करें।
  7. अगर महिला मधुमेह रोगी को सेक्स के दौरान योनि में सूखापन की समस्या आ रही हो तो चिकित्सक से परामर्श कर विशेष क्रीम का प्रयोग कर सकती हैं।
  8. विशेष परिस्थितियों में लिंग का कलर डाप्लर अल्ट्रासाउण्ड करायें।

डा0 सुधीर कुमार
मधुमेह एवं हृदय रोग विशेषज्ञ