Wednesday, August 17, 2016

मधुमेहः इतिहास के झरोखे से

मधुमेहः इतिहास के झरोखे से
धुमेह रोग आज सबसे व्यापक रोग के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। शायद ही कोई होगा जो ‘डायबिटिज’, ‘मधुमेह’, ‘शुगर’ की बीमारी से अपरिचित हो। ऐसा भी नहीं कि यह बीमारी प्राचीन युग में नही थी। आइये वर्तमान इतिहास में झाँक कर देखें कि इस बीमारी के बारे में लोगों की जानकारी और धारणायें क्या थीं। इस हेतु हम इतिहास को तीन खण्डों में बाँट कर चलते हैं-

1. प्राचीन युग (600 ए.डी. तक)
इस बीमारी का लिखित प्रमाण 1550 ई.पू. का मिलता है। मिस्र में ‘पापइरस कागज’ पर इस बीमारी का उल्लेख मिलता है, जिसे जार्ज इबर्स ने खोजा था, अतः इस दस्तावेज को ‘इबर्स पपाइरस’ भी कहते हैं। दूसरा प्राचीन प्रमाण ‘कैपाडोसिया के एरीटीयस द्वारा दूसरी सदी का मिलता है। एरीटीयस ने सर्वप्रथम ‘डायाबिटिज’ शब्द का प्रयोग किया, जिसका ग्रीक भाषा में अर्थ होता है ‘साइफन’। उनका कहना था कि इस बीमारी में शरीर एक साइफन का काम करता है और पानी, भोजन, कुछ भी शरीर में नहीं टिकता ओर पेशाब के रास्ते से निकल जाता है, बहुत अधिक प्यास लगती है और शरीर का मांस पिघल कर पेशाब के रास्ते बाहर निकल जाता है। 400-500 ई.पू. के काल में भारतीय चिकित्सक चरक एवं सुश्रुत ने भी इस बीमारी का जिक्र अपने ग्रन्थों में किया है। संभवतः उन्होंने सर्वप्रथम इस तथ्य को पहचाना कि इस बीमारी में मूत्र मीठा हो जाता है। उन्होंने इसे ‘मधुमेह’ (शहद की वर्षा) नाम दिया। उन्होंने देखा कि इस रोग से पीड़ित व्यक्ति के मूत्र पर चीटियाँ एकत्रित होने लगती हैं। उन्होंने दो प्रकार के मेह की चर्चा की है-उदक (जल) मेह और इक्षु (गन्ना) मेह जिसे आजकल हम ‘डायबिटीज इनसीपीडस’ और ‘डायबिटिज मेलाइट्स’ के नाम से जानते हैं। इक्षु में दो प्रकार के मधुमेह रोगियों का वर्णन मिलता है-एक वह रोगी जो स्थूलकाय, अधिक खाने वाले, और शिथिल जीवन शैली जीने वाले आरामतलब प्रवृत्त्ति के होते हैं (आज के टाइप-2 रोगी) और दूसरे क्षीणकाय, बहुत अधिक पेशाब करने एवं पानी पीने वाले (आज के टाइप-1 रोगी)। लक्षणों में थकान, सुस्ती, शरीर में दर्द का वर्णन मिलता है। जटिलताओं में न सूखने वाले घाव (Carbuncle) एवं हाथ पैरों में जलन, का वर्णन मिलता है।
नया अन्न, गुड़, चिकनाई युक्त भोजन, दुग्ध पदार्थों का अत्यधिक सेवन, घरेलू जानवरों का मांस भक्षण, मदिरा सेवन एवं विलासपूर्ण जीवन शैली इस रोग के जनक होते हैं। अल्पाहार, शारीरिक श्रम, शिकार करके मांस भक्षण करना आदि उपाय बताये गये हैं। आप कहेंगे कि यह बातें आज भी उतनी ही सत्य है। फर्क इतना है तब पैनक्रियाज एवं इंसुलिन की जानकारी नहीं थी। एरीटीयस एवं गेलन समझते थे विकार गुर्दों में आ जाता है, और यह विचार करीब 1500 वर्षों तक कायम रहा।
2. मध्य-युगीन काल (600-1500 ए.डी.)
इस काल में मुख्य रूप से रोग के लक्षणों का और विस्तार से वर्णन मिलता है। चीन के चेन-चुआन (सातवीं सदी) और अरबी चिकित्सक एवीसेना (960-1037 ए.डी.) ने गैंग्रीन एवं यौनिक दुर्बलता का जिक्र जटिलताओं के रूप में किया है।
3. आधुनिक काल (1500-2004 ए.डी.)
इस काल में रोग के जानने के लिए तमाम प्रयास शुरू हुए। थामस विलिस (1674-75 ए.डी.) ने पुनः मूत्र के मीठेपन को उजागर किया। किन्तु इस मिठास का कारण शर्करा को न मान कर किसी और तत्व को माना। करीब सौ साल बाद 1776 में मैथ्यू डॉबसन ने मधुमेह रोगी के मूत्र को आँच पर वाष्पित कर भूरे चीनी जैसा तत्व अलग किया। उन्होंने यह भी पाया कि रक्त सीरम भी मीठा हो जाता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कलेन (1710-90) ने डायबिटिज में ‘मेलाइटस’ शब्द को जोड़ा। ‘मेल’ का अर्थ ग्रीक भाषा में शहद होता है। इस प्रकार एरीटीयस द्वारा दिये गये शब्द ‘डायबिटिज’ (साइफेन) एवं कलेन द्वारा दिये गये शब्द ‘मेलाइटस’ के संगम से, दो हजार वर्षों से अधिक काल के बाद इस बीमारी का वर्तमान नाम ‘डायबिटिज मेलाइटस’ वजूद में आया।
1850-1950 तक का काल काफी महत्वपूर्ण काल माना जाता है। इस काल में लोगों को वैज्ञानिक सोच में व्यापक बदलाव आया और रोग के मूल कारण को जानने के तीव्र प्रयास हुए। यह दौर ‘प्रयोगिक-विज्ञान का दौर था। तथ्यों एवं परिकल्पनाओं को प्रयोगशालाओं में प्रमाणित करके उसे सत्यापित करने के प्रयास शुरू हुए। 1879 में पॉल लैंगर हेन्स ने सर्वप्रथम अपने शोधपत्र में पैनक्रियाज ग्रन्थि के कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं का जिक्र किया जो छोटे-मोटे द्वीप-समूहों में बिखरे रहते हैं।
वॉन मेरिंग एवं मिनकोविस्की ने सन् 1889 में दो कुत्तों का पैनक्रियाज ग्रन्थि शल्य क्रिया द्वारा निकाल दिया। अगले ही दिन उन्होंने पाया कि कुत्तों में मधुमेह के लक्षण (बहुमूत्र) उत्पन्न हो गये और उनके मूत्र परीक्षण में शर्करा पाया गया। इस प्रकार वह यह साबित करने में सफल हुए कि मधुमेह का सम्बन्ध गुर्दों से न होकर पैनक्रियाज ग्रन्थि से है। उन्होने देखा कि यदि पैनक्रियाज ग्रन्थि का टुकड़ा स्थापित कर दिया जाये तो जब तक यह टुकड़ा जीवित रहता है, मधुमेह के लक्षण गायब हो जाते हैं। आगे चल कर लैग्यूसे ने यह विचार दिया कि पैनक्रियाज ग्रन्थि में लैंगरहेन्स द्वारा वर्णित कोशिकायें किसी ऐसे तत्व का स्राव करती हैं जो रक्त में शर्करा को नियंत्रित करता है। बाद में जीन-डी0 मेयर ने इस तत्व का नाम ‘इंसुलिन’ रखा।
इस इन्सुलिन नामक तत्व को पैनक्रियाज से अलग करने के प्रयास में कई वैज्ञानिक समूह लगे हुए थे। अन्ततः कनाडा के हड्डी रोग विशेषज्ञ फ्रेडरिक बैटिंग, टोरंटो विश्वविद्यालय के क्रिया-विज्ञान के प्रोफेसर जे0 जे0 आर मैकलियाड, मेडिकल छात्र चाल्र्स बेस्ट एवं बॉयोकेमिस्ट जेम्स कॉलिप ने 1921 में इसमें सफलता पाई। पैनक्रियाज ग्रन्थि द्वारा निकाले गये इस पहले निचोड़ को 11 जनवरी 1922 को लीयोनार्ड थाम्पसन नामक रोगी को दिया गया। इसके बाद इन्सुलिन को शुद्ध और परिष्कृत करने का दौर चला और आज हमें जिनेटिक इन्जीनियरिंग द्वारा ‘मानव इन्सुलिन’ उपलब्ध है।
एक बार इन्सुलिन की जानकारी होने के पश्चात्, शरीर द्वारा इसके निर्माण, नियंत्रण, कार्यविधि, आदि पर तमाम शोधकार्य शुरू हुए और आज भी जारी है। इन शोधों के फलस्वरूप पैनक्रियाज ग्रन्थि पर कार्य कर इंसुलिन का स्राव कराने वाली दवायें, इंसुलिन रिसेप्टर एवं उन पर कार्य करने वाली दवाओं का अविष्कार किया गया। इन दवाओं के पहले इलाज का एकमात्र रास्ता भोजन में व्यापक फेरबदल एवं शारीरिक श्रम था और इनके निष्प्रभावी होने पर धीरे-धीरे घुल कर मरने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता नहीं होता था। अब यदि जीवन शैली परिवर्तन एवं भोजन परिवर्तन के बाद मधुमेह नियंत्रण में नहीं आता है तो हमारे पास तमाम दवायें हैं और जब वह भी निष्प्रभावी हो जाती हैं तो रामबाण के रूप में हमारे पास इंसुलिन होता है जो कभी विफल नहीं होता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि करीब पिछले साढ़े तीन हजार साल से मनुष्य ने इस बीमारी पर विजय पाने के लिये कितने प्रयास किये हैं।

मधुमेह- कुछ संभावित प्रश्न

मधुमेह- कुछ संभावित प्रश्न


प्रश्न: मधुमेह क्या है ?

उत्तर: रक्त में ग्लूकोज की मात्रा यदि एक निर्धारित सीमा से अधिक हो जाये तो उसे मधुमेह रोग (डायबिटिज) कहते हैं। रक्त में ग्लूकोज की मात्रा की मानक सीमा इस प्रकार है-

अवस्था

खाली पेट रक्त ग्लूकोज

75 ग्राम ग्लूकोज पीने के 2 घण्टे बाद

मधुमेह≥ 126 मिग्रा. %≥ 200 मिग्रा. %
ग्लूकोज नियंत्रण में कमी≥ 110 मिग्रा. और < 126 मिग्रा.≥ 140 मिग्रा. और < 200 मिग्रा.
सामान्य< 110 मिग्रा. %< 140 मिग्रा. %

प्रश्नः रक्त में ग्लूकोज क्यों बढ़ जाता है ?
उत्तरः मधुमेह रोग में शरीर में इन्सुलिन आवश्यकता से कम बनने लगता है, एवं इन्सुलिन रिसेप्टर शिथिल पड़ने लगते हैं। फलस्वरूप ग्लूकोज समुचित रूप से जल कर ऊर्जा में परिवर्तित नहीं हो पाता, इस कारण ग्लूकोज रक्त में बढ़ जाता है।
प्रश्नः ब्लड शुगर एवं मूत्र शुगर क्या अलग-अलग बीमारियाँ हैं ?
उत्तरः मूल बीमारी रक्त में ग्लूकोज (शुगर) का बढ़ना होता है। जब रक्त ग्लूकोज एक सीमा से अधिक बढ़ जाता है तो शरीर उससे छुटकारा पाने के लिए गुर्दों के माध्यम से मूत्र में त्यागना शुरू कर देता है। मूत्र में ग्लूकोज का न होना मधुमेह रोग न होने का प्रमाण नहीं है।
प्रश्नः क्या यह समयबद्ध रोग है?
उत्तरः नहीं! यह जीवन भर का रोग है।
प्रश्नः बढ़े रक्त ग्लूकोज से क्या हानि है? इसे नियंत्रित करना क्यों आवश्यक है?
उत्तरः बढ़ा हुआ रक्त ग्लूकोज रक्त की रासायनिक गुणवत्ता को प्रभावित करता है। बढ़ा हुआ ग्लूकोज रक्त नलियों की भीतरी दीवार की कोशिकाओं को धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त करता है। इस प्रक्रिया में रोगी को किसी प्रकार का दर्द अथवा कष्ट नहीं होता और वह इससे बेखबर रहता है। एक सीमा से अधिक क्षति होने पर नाजुक अंगों यथा- आंख के पर्दे, हृदय, मस्तिष्क के कार्य प्रभावित होने लगते हैं, और तब रोगी को इसका आभास होता है और वह चेतता है, किन्तु तब तक काफी देर हो चुकी होती है। यदि रक्त ग्लूकोज को निर्धारित सीमा के अन्दर नियंत्रित न रखा जाए तो यह शरीर के प्रत्येक अंग को प्रभावित करता है-शारीरिक कष्ट हो अथवा नहीं।
प्रश्नः इसके लक्षण क्या होते हैं ?
उत्तरः इसके निम्न लक्षण हो सकते हैं-
  1. थकान, कमजोरी, पैरों में दर्दः क्योंकि ग्लूकोज ऊर्जा में परिवर्तित नहीं हो पाता है।
  2. जननांगों में खुजली एवं संक्रमण।
  3. बार-बार चश्में का पावर बदलना।
  4. बार-बार गर्भपात होना या सामान्य से अधिक वजन का बच्चा होना।
  5. हृदय आघात, मस्तिष्क आघात का होना।
  6. गुर्दों का निष्क्रिय होना।
  7. पैर का घाव ठीक न होना एवं गैग्रीन का रूप ले लेना।
  8. अधिक पेशाब एवं भूख का लगना तथा तेजी से वजन का गिरना।
  9. प्रारम्भिक अवस्था में कोई लक्षण न होना।

प्रश्नः मधुमेह नियंत्रण का क्या मतलब है ?
उत्तरः रक्त ग्लूकोज को सामान्य के आस-पास रखना चाहिए। विभिन्न वैज्ञानिक शोधों से यह निर्विवादित रूप से सिद्ध हो चुका है कि यदि रक्त ग्लूकोज को नियंत्रित रखा जाये तो इस रोग से होने वाले विभिन्न जटिलताओं से लंबे अरसे तक बचा जा सकता है।
प्रश्नः चिकित्सा का उद्देश्य क्या है ?
उत्तरः चिकित्सा के निम्नलिखित उद्देश्य है:
  1. लाक्षणिक आराम
  2. जटिलताओं में कमी, तथा
  3. अंत तक क्रियाशील जीवन

प्रश्नः चिकित्सा के क्या उपाय हैं ?
उत्तरः मधुमेह चिकित्सा के लिए हमारे पास पांच हथियार हैं:
  1. भोजन
  2. व्यायाम
  3. औषधियां
  4. शिक्षा
  5. नियमित जांच

प्रश्नः मधुमेह रोगी को किस तरह का भोजन लेना चाहिए ?
उत्तरः मधुमेह रोगी का भोजन ऐसा होना चाहिए जो रक्त ग्लूकोज को बढ़ाने से रोके एवं रोग पर अनुकूल प्रभाव डाले। भोजन पौष्टिक होना चाहिए जिसमें कार्बोहाइड्रेट एवं रेशे, प्रचुर मात्रा में हों। भोजन की मात्रा भी शारीरिक श्रम के अनुसार नियंत्रित होना चाहिए।
प्रश्नः व्यायाम ?
उत्तरः यूँ तो व्यायाम की महत्ता स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी है, किन्तु मधुमेह रोग में इसकी विशेष भूमिका होती है। व्यायाम करने से शरीर का वजन कम होता है, पैरों में रक्त का संचार बढ़ता है, हृदय पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और रक्त ग्लूकोज को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। इन सबसे ऊपर आत्म विश्वास बढ़ता है।
प्रश्नः मधुमेह रोग में दवाओं की क्या भूमिका है ?

उत्तरः सबसे पहले यह अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि दवायें, भोजन एवं व्यायाम का विकल्प नहीं है। दवाओं के नम्बर सदैव इनके बाद आता है। चूंकि मधुमेह रोग शरीर की इन्सुलिन की कमी के कारण है, अतः यदि किसी प्रकार इन्सुलिन की मात्रा बढ़ाई जा सके तो इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। रोगी को सीधे इन्सुलिन दिया जा सकता है, किन्तु यह केवल ‘सूई’ के रूप में ही उपलब्ध है। इन्सुलिन की मात्रा को बढ़ाने का दूसरा तरीका खाने की दवायें हैं।
प्रश्नः मधुमेह रोगी को किस-किस जांच की आवश्यकता होती है ?
उत्तरः रक्त में बढ़ा हुआ ग्लूकोज पूरे शरीर को प्रभावित करता है, अतः प्रारम्भिक अवस्था में पूरे शरीर की जांच कराना आवश्यक होता है, जिसमें रक्त ग्लूकोज, ग्लाइकोसाइलेटेड हीमोग्लोबिन, रक्त वसा, मूत्र परीक्षण, हृदय, नेत्र परीक्षण इत्यादि जांच कराये जाते हैं।
प्रश्नः रक्त ग्लूकोज के जाँच में किन बातों का ध्यान रखा जाये ?
उत्तरः रक्त ग्लूकोज के जाँच में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जायेः
  1. एक बार दवा की मात्रा का निर्धारण हो जाये तब हर एक-दो माह पर रक्त ग्लूकोज का परीक्षण, खाली पेट और भोजन के दो घण्टे के पश्चात् कराना चाहिए।
  2. जिस दिन जाँच कराना हो उस दिन की दिनचर्या अन्य दिनों की भांति होनी चाहिए।
  3. दवा का सेवन उस दिन भी करना चाहिए।

प्रश्नः हाईपोग्लासीमिया क्या होता है ?
उत्तरः रक्त में ग्लूकोज की मात्रा एक सीमा से कम होने लगे (50 मिग्रा प्रतिशत) तो उसे हाईपोग्लाइसीमिया कहते हैं। इस अवस्था में रोगी का मस्तिष्क ठीक ढंग से काम नहीं करता है, उसे घबराहट, बेचैनी, पसीना होने लगता है। रोगी के आस-पास के लोगों को लगता है कि रोगी ने कोई नशा कर रखा है। ऐसी हालत में तत्काल ग्लूकोज या शर्करायुक्त भोजन न दिया जाये तो रोगी बेहोश हो जाता है, और दिमाग अपूर्णीय रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है। अतः मधुमेह रोगियों के दवा की मात्रा अपने आप नहीं घटाना-बढ़ाना चाहिए और न ही बिना डाक्टरी सलाह के उपवास रखना चाहिए। याद रखें मधुमेह रोग दीर्घकालिक रोग है और इसके नियंत्रण में आपकी भूमिका सर्वाधिक है। सुनी सुनाई बातों पर न जाकर अपनी हर शंका का समाधान अपने चिकित्सक से करें और दीर्घकालिक क्रियाशील जीवन जीयें।
प्रश्नः इन्सुलिन का इंजेक्शन कब दिया जाता है ?
उत्तरः इन्सुलिन की आवश्यकता रोगी को दो अवस्थाओं में होती है। पहली अवस्था वह होती है जब खाने की दवायें अपने अधिकतम खुराक में भी प्रभावी नहीं रहती है, यानी की पैंक्रियास ग्रन्थि लगभग पूर्ण रूप से काम करना बंद कर देती है। ऐसी अवस्था में रोगी को जीवनपर्यन्त इन्सुलिन लेना पड़ता है। दूसरी अवस्था वह होती है, जहां रोगी का रक्त ग्लूकोज खाने की गोलियों या भोजन व्यायाम के माध्यम से नियंत्रण में रहता है, किन्तु कुछ ऐसे कारण उत्पन्न हो जाते हैं जब शरीर को अधिक इन्सुलिन की आवश्यकता पड़ती है, यथा शल्य क्रिया, गर्भावस्था, संक्रामक रोग इत्यादि। ऐसी अवस्था में रोगी को कुछ समय के लिए इन्सुलिन दिया जाता है और उस अवस्था के समाप्त होने पर रोगी पुनः खाने की दवा पर चला जाता है।
प्रश्नः एक बार इन्सुलिन सूई लें तो सदैव इन्सुलिन की सूई लेने की आदत पड़ जाती है। यह कहां तक सत्य है ?
उत्तरः यदि शरीर को किसी चीज की आवश्यकता है तो उसे शरीर को देना पड़ेगा अन्यथा शरीर सुचारू रूप से कार्य नहीं करेगा। जैसे शरीर के लिए भोजन एक अनिवार्यता है तो हम नियमित भोजन करते हैं और कभी यह प्रश्न नहीं करते हैं कि हमें भोजन की आदत पड़ जायेगी, उसी प्रकार यदि शरीर अपनी आवश्यकता के अनुसार समुचित इन्सुलिन का निर्माण नहीं कर पाता तो उसे बाहर से देना पड़ेगा इसमें आदत पड़ने जैसी कोई बात नहीं है।
प्रश्न: भोजन शरीर के लिए क्यों आवश्यक है ?
उत्तर: हमारा शरीर एक मशीन है, जिससे हम विभिन्न कार्य लेते हैं। किसी भी कार्य को करने के लिये ऊर्जा (Energy) की आवश्यकता होती है और ऊर्जा के लिये ईंधन की। भोजन ईंधन का काम करता है। शरीर रूपी मशीन में हुई टूट-फूट की मरम्मत के लिए भी भोजन की आवश्यकता होती है। मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान होते हैं। बिना भोजन के कोई भी जीव लम्बे काल तक जीवित नहीं रह सकता। हमें क्या और कितना खाना चाहिए, यह जानना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है, क्योंकि अधिकांश बीमारियां गलत आहार के कारण उत्पन्न होती हैं।
प्रश्न: भोजन के मुख्य घटक क्या होते हैं और उनकी क्या महत्ता है ?
उत्तर: भोजन के निम्न घटक होते हैं:-
  1. कार्बोहाइड्रेट - ऊर्जा का मुख्य स्रोत।
  2. प्रोटीन - शरीर की कोशिकाओं के निर्माण में सहायक।
  3. वसा - शरीर की कोशिकाओं के निर्माण में सहायक, हार्मोन का निर्माण एवं संचित ऊर्जा का स्रोत
  4. विटामिन, खनिज, लवण - शरीर के विभिन्न रसायनिक एवं शारीरिक क्रियाओं में सहायक।

प्रश्न: कैलोरी क्या होती है?
उत्तर: कैलोरी ऊर्जा का माप है। हम शारीरिक श्रम में जो ऊर्जा खर्च करते हैं या भोजन से जो ऊर्जा प्राप्त करते हैं उसे कैलोरी कहते हैं।
प्रश्न: किसी व्यक्ति को कितनी ऊर्जा की आवश्यकता है, इसका निर्धारण कैसे करते हैं?

उत्तर: सबसे पहले यह ज्ञात करते हैं कि उस व्यक्ति का आदर्श वजन कितना होना चाहिए।
आदर्श वजन:
पुरूष: कद (सेमी. में) - 105 = वजन किग्रा. में
स्त्री : कद (सेमी. में) - 107 = वजन किग्रा. में
उदाहरण के लिए किसी पुरूष का कद 170 सेमी. है तो उसका आदर्श भार=170-105=65 किग्रा. होना चाहिए। इसके पश्चात् शरीर के लिये मूलभूत (Basic) ऊर्जा की आवश्यकता निकालते हैं। अब यदि व्यक्ति शिथिल जीवन शैली जीता है तो मूलभूत आवश्यकता का एक बटे तीन, यदि औसत जीवन शैली जीता है तो एक बटे दो और यदि अत्यधिक श्रम करता है तो उतनी ऊर्जा और उसमें जोड़ देते हैं।
उदाहरण के लिए व्यक्ति का जीवन 70 किलो है तो:-
उसकी मूलभूत आवश्यकता 70 x 22 = 1540 कैलोरी
शिथिल जीवन शैली 1540 + (1540/3) = 2055 कैलोरी
साधारण जीवन शैली 1540 + (1540/2) = 2310 कैलोरी
अत्यधिक श्रमयुक्त जीवन शैली 1540 + 1540 = 3080 कैलोरी
यदि व्यक्ति आदर्श भार से अधिक वजन का है तो उसे उपरोक्त विधि से निकाली गई ऊर्जा से कम ऊर्जा का भोजन देते हैं, ताकि शरीर में संचित ऊर्जा खर्च की जा सके।

प्रश्न: भोजन में कैलोरी की मात्रा का निर्धारण होने के पश्चात् विभिन्न घटकों से कितनी ऊर्जा ली जाये, इसका क्या अनुपात होना चाहिए?

उत्तर: भोजन में ऊर्जा के साथ-साथ विभिन्न घटकों के अनुपात को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है। भोजन में 60-65 प्रतिशत ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट, 15-20 प्रतिशत प्रोटीन एवं 15-20 प्रतिशत वसा से प्राप्त होनी चाहिए। भोजन में रेशे की मात्रा समुचित होनी चाहिए, इस के लिए चोकर युक्त आटा, हरी सब्जी, सलाद एवं सम्पूर्ण फल का सेवन करना चाहिए।

विश्व मधुमेह दिवस 14 नवम्बर

विश्व मधुमेह दिवस 14 नवम्बर
निरन्तर मधुमेह रोगियों की संख्या में हो रही वृद्धि को देखते हुए 1991 में इण्टरनेशनल डायबिटीज फेडेरेशन एवं “विश्व स्वास्थ्य संगठन” ने संयुक्त रूप से इस बीमारी के प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु प्रति वर्ष “विश्व मधुमेह दिवस” आयोजित करने का विचार किया। इस हेतु उन्होने 14 नवम्बर का दिन चयनित किया। आप पूछ सकते हैं कि 14 नवम्बर ही क्यों?

मधुमेह रोग के कारण एवं इसके विभिन्न पहलुओं को समझने हेतु कई लोग प्रयासरत थे। इनमें से एक जोड़ी फ्रेडरिक बैटिंग एवं चार्ल्स बेस्ट की भी थी, जो पैनक्रियाज ग्रन्थि द्वारा स्रावित तत्व के रसायनिक संरचना की खोज में लगे हुए थे। इस तत्व को अलग कर उन्होंने अक्टूबर 1921 में प्रदर्शित किया कि यह शरीर में ग्लूकोज निस्तारण करने में अहम् भूमिका निभाता है और इसकी कमी होने से मधुमेह रोग हो जाता है। इस तत्व को “इंसुलिन” का नाम दिया गया। इसकी खोज मधुमेह के इतिहास में एक मील का पत्थर है। इस कार्य हेतु इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
14 नवम्बर फ्रेडिरिक बैटिंग का जन्म दिवस है। अतः “विश्व मधुमेह दिवस” हेतु इस तिथि का चयन किया गया। प्रारम्भ में “विश्व मधुमेह दिवस” हेतु “यिन और याँग” को प्रतीक चिन्ह के लिये चुना गया था। चीनी संस्कृति में “यिन और याँग” को द्वैतवात के अनुसार प्रकृति में संतुलन का प्रतीक माना जाता है। यह पहचान चिन्ह इस बात की ओर इंगित करता है कि इस बीमारी पर समुचित लगाम कसने हेतु रोगी, चिकित्सक, सामाजिक जागरूकता आदि विभिन्न तत्वों के बीच संतुलन होना आवश्यक है।
“इण्टरनेशनल डायबिटीज फेडेरेशन” के सतत् प्रयास के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्ततः मधुमेह की चुनौती को स्वीकारा और दिसम्बर 2006 में इसे अपने स्वास्थ कार्यक्रमों की सूची में शामिल किया। सन् 2007 से अब यह संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के सूची में शामिल होने का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि अब संयुक्त राष्ट संघ के सदस्य देश अपनी स्वास्थ संबंधी नीति-निर्धारण में इसे महत्व दे रहें हैं।
सन् 2007 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस दिवस को अंगीकार करने के बाद इस का प्रतीक चिन्ह “नीला छल्ला” चुना गया है। छल्ला या वृत्त, निरंतरता का प्रतीक है। वृत्त इस बात का प्रतीक है विश्व के सभी जन इस पर काबू पाने के लिये एकजुट हो। नीला रंग आकाश, सहयोग और व्यापकता का प्रतीक है। इस प्रतीक चिन्ह के साथ जो सूत्र वाक्य दिया गया है वह है। Unite for Diabetes मधुमेह के लिए एकजुटता।
प्रत्येक वर्ष, “विश्व-मधुमेह दिवस” किसी एक केन्द्रीय विचार पर बल देता है। वर्ष 2008 का विचार “Diabetes and Children” “मधुमेह एवं बच्चे” था। बच्चों में मधुमेह टाइप - 1 एवं टाइप - 2 दोनो प्रकार के हो सकते है।
बच्चों में मुख्यतः टाइप - 1 मधुमेह होता है, जिसके चिकित्सा के लिए जीवन पर्यन्त इंसुलिन लेना होता है। कई बार इससे पीड़ित बच्चें के लक्षणों को न पहचान पाने के कारण उनकी मौत, डायाबिटीक कोमा में हो जाती है। बिमारी के निदान होने के बाद भी आर्थिक और अन्य कारणों से इन बच्चों को समुचित चिकित्सा नहीं मिल पाती। बदलते जीवन शैली और ठोस, उच्च उर्जा युक्त भोजन की प्रचुरता के कारण बच्चों में मोटापे की प्रवृत्ति इधर बहुत तेजी से बढ़ रही है। अमेरिकी आंकड़े बताते हैं कि 7-15 वर्ष की आयु वर्ग के बीच मोटापे की दर में 1985 से 1997 के बीच दो से चार गुनी वृद्धि हुई है। भारत में तमिलनाडु में डा. रामचन्द्रन द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण में 13-18 वर्ष के बच्चो में 18% में मोटापा पाया गया। बच्चों में बढ़ते मोटापे की प्रवृति एवं शारीरिक श्रम में कमी के कारण अब टाइप-2 मधुमेही बच्चे भी बड़ी संख्या में देखने को मिल रहें हैं। इन्ही बातों को संज्ञान में लेते हुए वर्ष 2008 विश्व मधुमेह दिवस का केन्द्रीय विचार “Diabetes and Children” “बच्चे और मधुमेह” दिया गया । वर्ष 2008-09 में डायबिटीज सेल्फ केयर क्लब ने बच्चों को केन्द्रित कर वर्ष भर के लिये एक अभियान शुरू किया था जिसका नाम “मधुमेह विजय” दिया गया। इस अभियान के तहत प्रति माह विभिन्न स्कूलों में बच्चों एवं अध्यापको को इस बिमारी के प्रति जागरूक करने, स्वस्थ भोजन, जीवन शैली एवं व्यायाम की महत्ता समझाने के लिये व्याख्यान किये गये और पोस्टर एवं स्लोगन प्रतियोगिता के माध्यम से बच्चों के सृजनात्मक सोच को विकसित किया गया।

किसी भी दीर्धकालिक व्याधि के साथ सफलतापूर्वक स्वस्थ जीवन जीने के लिये उचित चिकित्सा

मिशन एवं उद्देश्य
किसी भी दीर्धकालिक व्याधि के साथ सफलतापूर्वक स्वस्थ जीवन जीने के लिये उचित चिकित्सा के साथ उस व्याधि के बारे में सम्पूर्ण जानकारी परम् आवश्यक है। प्रिय मधुमेही बन्धुओं मधुमेह विषय पर इन्टरनेट पर विभिन्न वेब-साइट उपलब्ध है परन्तु हिन्दी में यह पहला वेब-साइट आपकी सुविधा एवं ज्ञान - वर्धन के लिये लाँच किया गया है। डा0 आलोक कुमार गुप्ता, चिकित्सक डायबिटीज एजुकेशन एवं रिसर्च सेंन्टर एवं चिकित्सीय सलाहकार ‘डायबिटीज सेल्फकेयर क्लब’ के द्वारा आप सभी का अभिवादन एवं इस वेबसाइट पर स्वागत है।

बन्धुओं 1983 में बी0आर0डी0 मेडिकल कालेज गोरखपुर, उत्तर - प्रदेश, भारत से मेडिसिन में स्नातकोत्तर (एम0डी0) की डिग्री लेने के पश्चात मैंने निजी चिकित्सक के तौर पर कार्य करना शुरू किया। समय के साथ मैने महसूस किया मधुमेह रोगियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। आप सभी जानते एवं महसूस करते होंगे कि दवाओं के अतिरिक्त भोजन, व्यायाम, कौन से जाँच कब और क्यों करायें, कितने अन्तराल पर करायें आदि तमाम ऐसी बाते होती हैं जिनकी व्यापक जानकारी हर मधुमेही को होनी चाहिए। मैने पाया कि वर्षों से मधुमेही रोगी लोगों को इस बीमारी की मूलभूत जानकारी भी नहीं होती, यहाँ तक कि सामान्यतः उनका रक्त शर्करा कितना होना चाहिए इस की भी जानकारी नहीं होती। एक या दो रक्त शर्करा रिपोर्ट सामान्य आते ही अधिकांश लोग दवायें बन्द कर देते हैं और फिर वर्षों जाँच नही कराते।
पश्चिमी देशों में चिकित्सक का कार्य एक सुपरवाइजर की तरह होता है। वह चिकित्सीय प्लान बनाता है, दवाओं की मात्रा निर्धारित करता है और समय - समय पर उसकी समीक्षा कर उसमें आवश्यक परिवर्तन करता है। बाकी कार्यो तथा भोजन, व्यायाम, इंसुलिन कैसे ले एवं दिन - प्रतिदिन आने वाली समस्या के लिये ‘‘डायाबिटीज एजूकेटर’’ होते है। उनके साथ रोगी बैठ कर विस्तृत चर्चा करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक से सम्पर्क करते है। भारतवर्ष में यह सभी कार्य चिकित्सक को ही करने पड़ते हैं। यदि एक रोगी से विस्तारपूर्वक यह सभी बाते बताई जाये तो एक घंटे का समय लगता है, और व्यहवारिक तौर पर यह संभव नहीं हो पाता, न रोगी न ही चिकित्सक इतना समय देने की स्थित में होते हैं।
इस समस्या के समाधान हेतु मैने अपने क्लीनिक पर माह में एक दिन ‘मधुमेह क्लीनिक’ करना शुरू किया। उस दिन तीन घंटे के ‘शिक्षा सत्र’ में सभी नये पंजीकृत रोगियों को मधुमेह की मूलभूत जानकारी दी जाती है। इसके काफी सकारात्मक परिणाम सामने आये। धीरे - धीरे मैने महसूस किया कि इस शिक्षा - अभियान का क्षेत्र और विस्तृत किया जाये। सन 2003 में कुछ उत्साही मधुमेह बन्धुओं के सहयोग से यह सपना भी साकार हुआ। दवा व्यवसायी श्री नीरज तिवारी, शामियाना व्यवसायी श्री कमल चैरसिया एवं श्री विनय श्रीवास्तव, वेदानन्द दूबे, धनश्याम प्रसाद श्रीवास्तव, डा0 विद्यावती के सक्रिय सहयोग से सन् 2003 में ‘डायाबिटीज सेल्फ केयर क्लब’ गोरखपुर की स्थापना हुई। अपनी स्थापना से निरन्तर यह क्लब हर माह के प्रथम रविवार को सतत् मधुमेह जनचेतना कार्यक्रम के अन्तर्गत व्याख्यान का आयोजन करता है, जिसमें विभिन्न विषयों यथा भोजन, व्यायाम, दवायें, नेत्र, गुर्दे, पैरो की देखभाल, कौन से जॉंच कब और क्यों करायें पर विशेषज्ञों का व्याख्यान कराया जाता है। 14 नवम्बर ‘विश्व मधुमेह दिवस’ पर विशेष व्याख्यान एवं ‘ग्लोबल डायबिटीज वाक’ का आयोजन किया जाता है। क्लब की गतिविधि को देखते हुए कालान्तर में फ्रीमेंसनरी संस्था लॉज वॉलैस - 99 एवं सहारा वेलफेयर फाउन्डेशन जैसी संस्था ने भी हाथ मिलाया हैं। मधुमेह के प्रति जागरूकता के लिये स्कूल, कालेज एवं विश्वविद्यालय में व्याख्यान एवं पोस्टर प्रतियोगिता का भी आयोजन पिछले वर्ष किया गया।
क्लब की गतिविधि की महत्ता एवं सफलता को देखते हुए ‘इंडिया टूडे’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने अपने 21 सितम्बर 2005 के हिन्दी अंश में इस पर लेख प्रकाशित किया है। उत्तर - प्रदेश डायविटीज एसोसियेसन ने 2007 में मेरे इस सामाजिक अभियान को देखते हुए फैलोशिप एवार्ड प्रदान किया।
इस जन-जागरूकता को और व्यापक स्वरूप देने हेतु इस वर्ष (2009) 14 नवम्बर को इस हिन्दी वेबसाईट को लॉंच किया जा रहा है। इस साइट का मुख्य उद्देश्य मधुमेह से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर सरल एवं सुबोध तरीके से जानकारी देना है।
अभी इस वेबसाईट का शैशवकाल है। हमारा पूरा प्रयास होगा कि समय के साथ इसे और समृद्ध किया जाये। आप का सक्रिय सहयोग इस दिशा में उत्प्रेरक भी तरह कार्य करेगा। आशा है कि आप अपना अमूल्य सुझाव हमें निरन्तर भेजते रहेगें।

मधुमेह और सेक्स जीवन

मधुमेह और सेक्स जीवन
धुमेह (Blood Sugar) के रोगियों में सेक्स या जननेन्द्रिय सम्बन्धी समस्याओं की संभावना अधिक होती है। यह आश्चर्य का विषय है कि भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मधुमेह के रोगियों में सेक्स सम्बन्धी समस्याओं पर न तो मरीजों ने और न ही चिकित्सकों ने ही विशेष ध्यान देने की जरूरत महसूस की है। मधुमेह के रोगियों में पुरूषों की समस्याओं अलग होती है और महिलाओं की अलग।

  1. लिंग में पर्याप्त तनाव का आना (Erectile Dysfunction) सामान्य व्यक्तियों की तुलना में मधुमेह के रोगियों में यह समस्या से 15 साल पहले आने की संभावना होती है। सामान्य व्यक्तियों में यह समस्या 15 फीसदी की होती है, जबकि मधुमेह के रोगियों में यह समस्या 45 से 55 प्रतिशत होती है।
  2. लिंग में पर्याप्त तनाव न आने के मुख्यतः दो कारक होते हैं-एक स्नायु सम्बन्धी (Nerves Neuropathy), दूसरा रक्त नलिका सम्बन्धित।
  3. मधुमेह के रोगियों में आम व्यक्ति की तुलना में उच्च रक्तचाप की संभावना 30 फीसदी अधिक होती है। लिंग में पर्याप्त कड़ापन न आने की वजह उच्च रक्तचाप भी हो सकती है।
  4. कुछ दवाओं की वजह से भी लिंग में तनाव न आना (Erectile Dysfunction) हो सकती है।
  5. महिला मधुमेह रोगियों की योनि में सेक्स के दौरान चिकने पदार्थ का स्राव न होने के समस्या हो सकती है, जिससे सेक्स (Inter Course) के दौरान दर्द हो सकता है।

सेक्स सम्बन्धी सावधानियां:

  1. मधुमेह के रोगी अपने जननांगों की पर्याप्त सफाई रखें।
  2. शारीरिक संबंध बनाने से पहले खासकर महिलायें मूत्र त्याग जरूर कर लें।
  3. सेक्स के दौरान एक दूसरे का भरपूर सहयोग करें और प्रोत्साहन दें।
  4. ऐसी औषधियां न लें, जो इस पर प्रभाव डाल सकती हैं।
  5. रक्तचाप को नियंत्रण में रखें।
  6. शराब एवं तम्बाकू का सेवन न करें।
  7. अगर महिला मधुमेह रोगी को सेक्स के दौरान योनि में सूखापन की समस्या आ रही हो तो चिकित्सक से परामर्श कर विशेष क्रीम का प्रयोग कर सकती हैं।
  8. विशेष परिस्थितियों में लिंग का कलर डाप्लर अल्ट्रासाउण्ड करायें।

डा0 सुधीर कुमार
मधुमेह एवं हृदय रोग विशेषज्ञ

पेशाब अधिक मात्रा में होता है।

मधुमेह

अधिक मात्रा में पेशाब का होना मधुमेह का रोगी प्रतिदिन कई लीटर पेशाब बाहर निकालता है, जबकि सामान्य व्यक्ति में पेशाब की मात्रा प्रतिदिन लगभग डेढ़ लीटर होती है। मधुमेह से ग्रसित व्यक्ति के सूखे होंठ यह दरसाते हैं कि वह बहुत अधिक प्यासा है। कुछ लोगों में पेशाब की मात्रा सामान्य से अधिक होती हैं, लेकिन उनके अन्दर शुगर नहीं होती। इसका एक कारण गुरदा फेलेयर भी हो सकता है। इस स्थिति में रात के समय पेशाब अधिक मात्रा में होता है। इस पेशाब का कम मात्रा में होने वाले पेशाब से मिलान करना चाहिए। यदि दोनों में अन्तर दिखायी पड़े, तो इनका परीक्षण करने के बाद ही रिपोर्ट के अनुसार इलाज कराना चाहिए। मधुमेह का पूरी तरह से इलाज न कराने पर इससे पीड़ित रोगी बेहोश भी हो सकता है। इस दशा से बचने के लिए रोगी को अपना ब्लड-शुगर टेस्ट कराते रहना चाहिए, जिससे बेहोशी की नौबत न आये। डाक्टरों का मानना है कि मधुमेह से पीड़ित रोगी की आँखों की रोशनी भी जा सकती है। मधुमेह के अनियन्त्रित होने पर उसका दुष्प्रभाव आँखों के रेटिना पर भी पड़ता है। अतः मधुमेह के लक्षण दिखायी देने पर ब्लड-शुगर टेस्ट जरूर कराना चाहिए, ताकि मोतियाबिन्द से बचा जा सके।
हाथ-पैरों में दर्द होना। ऑखों और मूत्रतन्त्र में संक्रमण होना। जॉघों और पसलियों में दर्द होना। चेहरे पर फालिज का प्रकोप । भोजन करते समय चेहरे पर अधिक पसीना आन। रात में सोते समय अचानक सॉस फूलन। खून में कमी, शरीर में सूजन, कब्ज़ की शिकायत और मूत्र की मात्रा का सामान्य से कम अथव। अधिक होना । लीवर के आकार में वृद्धि, अधिक दिनों तक पीलिया बीमारी का बने रहना, जोड़ों में दर्द और मुँह में बदबू तथा पायरिया के लक्षण। मधुमेह के लगभग चालीस प्रतिशत रोगियों में गुरदा-रोग पाया जाता है। यह किन परिस्थितियों में होता है, इसके बारे में नीचे बताया जा रहा है— c» यदि रोगी मधुमेह से काफी समय से ग्रस्त हो। - L» यदि रोगी के परिवार के लोग भी मधुमेहजनित J. - गुरदा–रोग से पीड़ित रहे हों। o/--> c» यदि मधुमेह का रोगी उच्च-रक्तचाप से भी ग्रसित - हो, तो उसमें गुरदा-रोग होने की सम्भावना होती है। @os c० मधुमेह रो पीड़ित चालीस बर्ष से कम उम्र के रोगियों Ay - में गुरदा-रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

Sunday, July 31, 2016

కిడ్నీ కేర్ మీ చేతుల్లో‌నే

కిడ్నీ కేర్ మీ చేతుల్లో‌నే


               మూత్రపిండాలు (కిడ్నీ) శరీరంలో రక్తాన్ని శుద్ధి చేస్తాయి. రసాయనాలు, ఇతర హానికర పదార్థాలు, ద్రవాలన్నీ ఈ వడపోత ప్రక్రియ ద్వారా బయటకు వెళ్లిపోతాయి. అంతటి ప్రాధాన్యం కలిగిన కిడ్నీలో సమస్య వచ్చిందంటే చాలు జీవితకాలం పూర్తయినట్టేనని చాలామంది భావిస్తారు. ఇది కేవలం ఒక అపోహ మాత్రమే. తగిన చికిత్సలు చేయించుకుంటే ఈ వ్యాధిగ్రస్తులు అందరిలాగే సంపూర్ణ జీవితాన్ని కొనసాగించవచ్చు. వయస్సు మీద పడిన తర్వాత వచ్చే ఈ సమస్యలను ఒక పద్ధతి లేని ఆహార నియమాల వల్ల యుక్త యస్సులో కొని తెచ్చుకుంటున్నారని వైద్యులు చెబుతున్నారు. అసలు మూత్రపిండాల వ్యాధులు ఏవిధంగా సోకుతాయి? ఎటువంటి జాగ్రత్తలు తీసుకోవాలి? వ్యాధి నుంచి ఎలా బయటపడాలి? ఆ క్రమంలో అందుబాటులోకి వచ్చిన నూతన చికిత్సలు ఏమిటి? అన్న విషయాలు ఈ వారం డాక్టర్స్‌ స్పెషల్‌లో తెలుసుకుందాం.
లక్షణాలు
కిడ్నీ వ్యాధి రావడానికి ముందుగా శరీరంలో కొన్ని ముఖ్యమైన సూచనలు కనిపిస్తాయి. వాటిని ప్రాతిపదికగా తీసుకుని వ్యాధి ఉన్నదీ లేనిదీ నిర్ధారణ చేసుకోవచ్చు. కాళ్లు, ముఖం వాపు, మూత్రవిసర్జన తగ్గడం, ఆకలి లేకపోవడం, ఉదయం నిద్ర లేచిన వెంటనే కడుపులో వికారంగా ఉండి వాంతి వచ్చినట్టుగా ఉండడం, పగటిపూటా ఇలాగే ఉండడంతోపాటు మగతగా ఉంటుంది. పగలు నిద్ర ఎక్కువగా రావడం, రాత్రిపూట నిద్ర పట్టకపోవడం కిడ్నీ వ్యాధి లక్షణాలు. ఇలా ఉన్నప్పుడు బ్లడ్‌ యూరియా క్రేట్‌ పరీక్ష చేయడం ద్వారా వ్యాధి ఉన్నదీ లేనిదీ తెలుసుకోవచ్చు. కిడ్నీ ద్వారా బయటకు వెళ్లవలసిన వ్యర్థ పదార్థాలు ఎక్కువ పరిమాణంలో ఉన్నాయా లేదా అన్నది ఈ పరీక్ష ద్వారా తేలిపోతుంది. ఒకవేళ వ్యర్థ పదార్థాలు ఎక్కువ పరిమాణంలో ఉన్నాయంటే దాన్ని కిడ్నీ వ్యాధిగా పరిగణించాలి. ఆ తర్వాత అల్ట్రాసౌండ్‌ స్కాన్‌, హిమోగ్లోబిన్‌ నివేదిక పరిశీలించి ఈ సమస్య దీర్ఘకాలంగా ఉందా లేక కొత్తగా వచ్చిందా అని తెలుసుకోవచ్చు. వ్యాధి ప్రాథమిక దశలో ఉంటే మందులతో నయం చేసుకోవచ్చు. మందులతో నయం కానప్పుడు దాని తీవ్రత పెరుగుతుంది. కొందరికి అధిక రక్తపోటు (హైబీపీ), మధుమేహం (డయాబెటిస్‌) దీర్ఘకాలికంగా ఉన్నప్పుడు వాటి ప్రభావం కిడ్నీలపై నెమ్మదిగా పడి వ్యాధి తీవ్రతరమవుతుంది.

రక్తశుద్ధి ఎప్పుడంటే...
ఈ వ్యాధికి సంబంధించిన లక్షణాలు ఉన్నాయా లేదా అని ముందుగా నిర్ధారించుకున్న తర్వాత చికిత్స మొదలవుతుంది. వ్యాధి ప్రాథమిక దశలో ఉంటే మందులు, ఆహార నియంత్రణ ద్వారా నివారించుకోవచ్చు. కాళ్లవాపు, ఆయాసం వంటి లక్షణాలు ఎక్కువగా ఉండి మందులు వాడుతున్నప్పటికీ మూత్ర పరిమాణం పెరగని పక్షంలో రక్తశుద్ధి (డయాలసిస్‌) చేయాల్సి వస్తుంది. ఆహార నియంత్రణతో శరీరంలో పొటాషియం పరిమాణం తగ్గని పక్షంలో అది గుండెపై ప్రభావం చూపుతుంది. మూత్రంలో యాసిడ్‌, యూరియా పరిమాణాలు పెరుగుతూ ఉంటే డయాలసిస్‌ తప్పనిసరిగా చేయాల్సి ఉంటుంది.
వ్యాధి ఎందుకొస్తుందంటే...
కిడ్నీ సమస్యలు రెండు రకాలుగా ఉంటాయి. ఒకటి తాత్కాలికమైనది కాగా రెండోది దీర్ఘకాలికంగా ఉండేది. తాత్కాలిక సమస్యకు అనవరసంగా పెయిన్‌ కిల్లర్స్‌ వాడడం, యాంటీ బయాటిక్‌లు అవసరమైనా, లేకపోయినా దీర్ఘకాలంగా తీసుకోవం, డీహైడ్రేషన్‌ వంటివి వచ్చినప్పుడు నిర్లక్ష్యం చేయడం లాంటి ప్రధాన కారణాల వల్ల కిడ్నీల్లో సమస్యలు ఏర్పడతాయి. ఇటువంటి వాటిని అరికట్టడం ద్వారా వాటిని ఆరోగ్యవంతంగా ఉంచుకునే వీలుంటుంది. మధుమేహం, హైపర్‌ టెన్షన్‌ వల్ల దీర్ఘకాలిక కిడ్నీ వ్యాధి ఏర్పడుతుంది. ఈ వ్యాధిగ్రస్తుల్లో అరవై నుంచి డభై శాతం మంది మధుమేహం కారణంగా సమస్యను ఎదుర్కొంటున్న వారే. మధుమేహ వ్యాధిని అదుపులో ఉంచుకోవడం వల్ల కిడ్నీ సమస్యలు రాకుండా నిరోధించకపోయినప్పటికీ కొంతవరకు జాప్యం చేయవచ్చు. ఒకవేళ వ్యాధి సోకినా డయాలసిస్‌ వరకు వెళ్లకుండా చేసుకునే అవకాశం ఉంటుంది.
ఇవీ జాగ్రత్తలు
కుటుంబంలో ఎవరికైనా మధుమేహ వ్యాధి ఉన్నా కుటుంబ సభ్యులంతా ఏడాదికి ఒకసారి రక్తపరీక్షలు చేయించుకోవాలి.
మధుమేహం, హైబీపీ ఉంటే వైద్యుల పర్యవేక్షణలో మందులు వాడడంతోపాటు ఆహార నియంత్రణ పాటించాలి.
మందులు క్రమం తప్పకుండా వేసుకుంటూ షుగర్‌ను అదుపులో ఉంచుకోవాలి.
తద్వారా కిడ్నీ సమస్యలనుు కొంతకాలం వాయిదా వేయవచ్చు.
షుగర్‌ను నియంత్రించుకోని పక్షంలో వృద్ధాప్యంలో రావాల్సిన కిడ్నీ సమస్యలు ముందుగానే వచ్చే అవకాశం ఉంటుంది.
క్యాలరీలు అధికంగా ఉండే పిజ్జాలు, బర్గర్లు వంటి వాటికి దూరంగా ఉండాలి.
ఆల్కహాల్‌, ధూమపానం వంటి అలవాట్లు మానేయాలి.
నిత్యం వ్యాయామం చేయడం, ఆహారం విషయంలో జాగ్రత్తలు పాటించడంతోపాటు రోజుకు రెండు లీటర్ల నీరు తాగడం ద్వారా కిడ్నీ సమస్యలు రాకుండా అరికట్టవచ్చును.
కిడ్నీ శరీరంలో మురుగును వదిలించే వ్యవస్థ వంటిది. ఆ మురుగు బయటకు పోకుండా లోపల ఉండిపోతే శరీరం మొత్తం పాడైపోతుంది. శరీరంలో రక్తాన్ని శుద్ధి చేయడం, సోడియం, పొటాషియం తదితర లవణాలను నియంత్రించడం మూత్రపిండాల విధి. అందువల్ల బీపీ, రక్తహీనత వంటివి ఉన్నప్పుడు కిడ్నీ పరీక్షలు చేయించుకోవడం ఉత్తమం.

రెండు విధాలుగా డయాలసిస్‌ 
కిడ్నీ వ్యాధి సోకిన రోగులకు ఒక్కోసారి డయాలసిస్‌ (రక్తశుద్ధి) అవసరమవుతుంది. ఇది రెండు రకాలుగా ఉంటుంది. ఒకటి హిమో డయాలసిస్‌, రెండోది పెరిటోనియల్‌ డయాలసిస్‌.
హిమో డయాలసిస్‌
ఇది చేయించుకునే రోగులకు బీపీ సాధారణ స్థాయిలో ఉండాలి.
వ్యాధి తీవ్రత ఎక్కువగా ఉన్న రోగుల్లో బీపీ తక్కువగా ఉంటుంది.
ఇటువంటి రోగులకు సీఆర్‌ఆర్‌టీ (కంటిన్యూయస్‌ రీనల్‌ రీప్లేస్‌మెంట్‌ థెరపి) అనే ఆధునిక యంత్రం ద్వారా డయాలసిస్‌ చేయవచ్చు.
ఈ చికిత్స దశల్లో కిడ్నీ విఫలమైతే దాని మార్పిడి విషయాన్ని రోగులకు చెప్పాల్సి ఉంటుంది.
పెరిటోనియల్‌ డయాలసిస్‌
పెరిటోనియల్‌ డయాలసిస్‌కు మరో పేరే హోం డయాలసిస్‌.
రోగులు హిమో డయాలసిస్‌ సెంటర్‌కు దూరంగా ఉన్న పక్షంలో
పెరిటోనియల్‌ డయాలసిస్‌ విధానాన్ని ఉపయోగిస్తారు.
ఈ విధానంలో యంత్రం అవసరం ఉండదు.
ఆస్పత్రికి వెళ్లాల్సిన అవసరమూ ఉండదు.
పచ్చకామెర్లు ఉన్న వారికి ఈ విధానం ఎంతో ఉపయోగకరంగా
ఉంటుంది.
దీనికి రక్తంతో సంబంధం ఉండదు.
హిమో డయాలసిస్‌లో బీపీ హెచ్చుతగ్గులు ఉండడం వల్ల రికవరీ
అవకాశాల్లో పది నుంచి ఇరవై శాతం వరకు రిస్క్‌ ఉంటుంది.
ఆరేడు గంటలకు ఒకసారి మూత్రంతో నిండిపోయిన బ్యాగ్‌ను
మారుస్తుండాలి.
ఇది నెమ్మదిగా పనిచేయడంతో బీపీలో హెచ్చుతగ్గులు వచ్చే అవకాశం లేదు.
హిమో డయాలసిస్‌ కంటే ఇది ఎంతో ఉపయోగకరమైనది.
- డాక్టర్‌ కె.ఎస్‌.నాయక్‌, 
నెఫ్రాలజిస్ట్‌, 
హైదరాబాద్‌.